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(७३८)
अष्टाङ्गहृदये
उष्णताकरके पीडितहुये मनुष्योंको शीतल बस्ति देवे और शीतकरके पीडित हुये मनुष्योंको सुखपूर्वक गरम बस्ति योग्य है, रोगके योग्य औषधोंकरके संयुक्त करी बस्तिको विचारके प्रयुक्त करै ॥ ७० ॥
बस्तीन्न बृंहणीयान्दद्याव्याधिषु विशोधनीयेषु॥ मेदस्विनो विशोध्या ये च नराः कुष्ठमेहार्ताः॥ ७१॥ न क्षीणक्षतदुर्बलमूछितकृशशुष्कशुद्धदेहानाम् ॥
दद्याद्विशोधनीयान्दोषनिबद्धायुषो ये च ॥७२॥ और विशेषकरके शोधन करनेको योग्य रोगमें बृंहणसंज्ञक बस्तियोंको नहीं देवै मेदवाला कुष्ठ और प्रमेहसे पीडित ये मनुष्य विशेषकरके शोधन करनेके योग्य हैं ॥ ७१ ॥ और क्षीण क्षत दुर्बल मछित कृश शुष्क शुद्ध देहवालोंको विशेषकरके शोधनीय द्रव्योंको नहीं देवै, अर्थात् प्राणकी रक्षाके अर्थ ये विशेषकरके शोधन करनेके योग्य नहीं हैं ॥ ७२ ॥ इति श्रीबेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
कल्पस्थाने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
पञ्चमोऽध्यायः।
DOCGOoअथातो बस्तिव्यापत्सिद्धिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनन्तर बस्तिव्यापत्सद्धिनाम अध्यायका ब्याख्यान करेंगे ॥
अस्निग्धस्विन्नदेहस्य गुरुकोष्ठस्य योजितः॥शीतोऽल्पस्नेहलवणद्रव्यमानो घनोऽपि वा॥१॥ बस्तिःसंक्षोभ्य तं दोषं दुर्बल
वादनिहरजाकरोत्ययोगंतेन स्याहातमूत्रशकृग्रहः॥२॥ नाभिवस्तिरुजादाहो हल्लेपः श्वयथुर्गुदेकण्डूर्गुण्डानि वैवर्ण्यम
रतिर्वह्निमार्दवम् ॥ ३॥ स्निग्ध और स्विन्नपनेसे वर्जित देहवालेके और भारेकोष्ठवालेके अर्थ योजित किया शीतल और अल्पस्नेह और नमकसे संयुक्त और अल्पद्रव्यसे संयुक्त अल्पमात्रावाला अथवा बहुतमात्रा वाला ॥ १ ॥ बस्ति तिस दोषको संक्षोभितकर दुर्बलपनेसे नहीं निकसताहुआ अयोग्यताको करताहै, तिसकरके वात मूत्र विष्ठाका बंधा पडजाता है ॥२॥ नाभि और बस्तिमें शूल दाह हृदयमें लेप गुदामें शोजा खाज गंडविवर्णता ग्लानि मंदाग्नि ये उपजतेहे ॥ ३ ॥
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