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श्रीः ।
अथ अष्टाङ्गहृदयसंहितायाम्
कल्पस्थानम् ।
प्रथमोऽध्यायः ।
अथातो वमनकल्पमध्यायं व्याख्यास्यामः ।
इसके अनंतर अब हम मनकल्पनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ||
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ॥
ऐसे आत्रेय आदि महर्षि कहते भये ॥
वमने मदनं श्रेष्ठं त्रिवृन्मूलं विरेचने ॥
नित्यमन्यस्य त व्याधिविशेषेण विशिष्टता ॥ १ ॥
मन में नित्यप्रति मैनफल श्रेष्ठ है और विरेचनमें निशोतकी जड श्रेष्ठहै अन्य औषधको निश्चय व्याधिके विशेषकरके विशिष्टता है ॥ १ ॥
फलानि तानि पाण्डूनि न चातिहरितान्यपि ॥ आदायाह्नि प्रशस्तर्क्षे मध्ये ग्रीष्मवसन्तयोः ॥ २ ॥ प्रमृज्य कुशमुत्तोल्यां क्षि स्वा वध्वा प्रलेपयेत् ॥ गोमयेनानुमुत्तोलीं धान्यमध्ये निधाप येत् ॥ ३ ॥ मृदुभूतानि मध्विष्टगन्धानि कुशवेष्टनात् ॥ निष्कृष्य निर्गतेऽष्टाहे शोषयेत्तान्यथातपे ॥ ४ ॥ तेषां ततः सुशुष्काणामुद्धृत्यफलपिप्पलीः ॥ दधिमध्वाज्यपललैर्ऋदित्वा शोषये
पुनः ॥ ५ ॥ ततः सुगुप्तं संस्थाप्य कार्यकाले प्रयोजयेत् ॥ पांडुरूपवाले और अत्यंत हरितरंग से रहित ऐसे मैंनफलोंको ग्रीष्म और वसंत ऋतु के मध्य में श्रेष्ठ नक्षत्र वाले दिनमें ग्रहण करके ॥ २ ॥ पीछे फलोंके मल आदि दोषों को दूर करके कुशाकी मूटिकामें प्राप्तकर और ऊपरसे बंधकर तिस मूटिका अर्थात् मुत्तोलको गोबर करके लेपितकरै पीछे अन्न समूहमें स्थापित करे || ३ || कोमलरूप और मदिरा के समान गंववाले कदाचित् इष्टगं - धवाले ऐसे जब होजावें वे फल तब तिस कुशाके वेटनसे आठ दिनोंके पश्चात् निकासकर घाममें शोषित करै ॥ ४ ॥ पीछे शुष्कहुये तिन फलोंको निकास और दही शहद घृत इन्होंकरके मर्दितकर फिर वाममें सुखावै ||५|| पीछे अच्छीतरह गुप्त करके संस्थापित कर वमनके समय में प्रयुक्तकरे ॥
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