________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(६८६)
अष्टाङ्गहृदयेहाथीके मूत्रसे झिराया हुआ और १०२४ तोले प्रमाणसे संयुक्त हाथीकी लीदके दग्ध किये खारमें दशवें भागसे संयुक्त बावचीके बीजोंको मिलाके पकावै ॥ १४ ॥ चिकनेपनेको प्राप्तहुये तिस करके मनुष्य बहुतवार घष्ट करताहुआ अथवा लेपित करताहुआ श्वित्रको जीतता है, अथवा इसी करके कुष्ठ मस तिलकालक व्रणमें उपजे अधिक मांसपनेको जीतता है ॥१५ ॥
भल्लातकद्वीपिसुधार्कमूलंगुञ्जाफलज्यूषणशंखचूर्णम्॥तुत्थंसकुष्ठं लवणानि पञ्च क्षारद्वयं लांगलिकां च पक्त्वा ॥ १६ ॥ स्नुगकदुग्धे घनमायसस्थं शलाकया तद्विदधीत लेपम् ॥ कुष्ठे कि लासे तिलकालकेषु मासेषु दुर्नामसु चमकीले ॥ १७ ॥ भिलावाँ चीतेकी जड थूहरकी जड आककी जड चिरमठी सूंठ मिरच पीपल शंखका चूरन तूतिया कूठ पांचोंनमक साजीखार जवाखार कलहारीको ॥ १६ ॥ थूहरके और आकके दूधमें पकावै और घनरूप लोहके पात्रमें स्थित करे, पीछ सलाई करके लेपको करे, यह लेप कुष्ठ किलाश तिलकालक मांस बवासीर चर्मकाल इन्होंमें हित है ॥ १७ ॥
शुद्धया शोणितमोक्षैर्विरूक्षणैर्भक्षणैश्च सक्तूनाम् ॥
श्वित्रं कस्याचदेव प्रशाम्यति क्षीणपापस्य ॥१८॥ जुलाब आदि शुद्धि करके और रक्तके निकासनेकरके और रूक्षण कर्म करके और सत्तुओंके भक्षण करके क्षीण पापोंवाले किसी मनुष्यका श्वित्रकुष्ठ शांतिको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥
यहां श्वित्रचिकित्सा समाप्त हुई ।
अथ कृमिचिकित्सितम्।
स्निग्धस्विन्ने गुडक्षीरमत्स्यायैः कृमिणोदरे ॥ उत्क्लेशितकृमि कफे शर्वरीं तां सुखोषिते ॥ १९॥ सुरसादिगणं मूत्रे क्वाथयिवार्द्धवारिणि ॥ तं कषायं कणागालकृमिजित्कल्कयोजितम् ॥ २०॥ सतैलस्वर्जिकाक्षारं युट्याइस्तिं ततोऽहनि ॥ तस्मिनव निरूढं तंपाययेत विरेचनम्॥२१॥त्रिवृत्कल्कं फलकणा कषायालोडितं ततः॥ ऊर्ध्वाधःशोधिते कुर्य्यात्पञ्चकोलयुतं क्रमम्॥२२॥ कटुतिक्तकषायाणां कषायैः परिषेचनम् ॥ काले विडङ्गतैलेन ततस्तमनुवासयेत् ॥ २३॥
For Private and Personal Use Only