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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (६८३) बहुदोषः संशोध्यः कुष्ठी बहुशोनुरक्षता प्राणान् ॥
दोषे ह्यतिमात्रहृते वायुहन्यादबलमाशु ॥९५॥ प्राणोंकी रक्षा करनेवाले वैद्यको बहुत दोषोंवाला कुष्ठरोगी बारंबार शोधित करना योग्यहै क्यों कि अत्यन्त हृतकिये दोषमें बलरहित रोगीको वायु तत्काल नाशताहै ॥ ९५ ॥
पक्षात्पक्षाच्छर्दनान्यभ्युपेयान्मासान्मासाच्छोधनान्यप्यधस्तात् ॥ शुद्धिमूर्ध्नि स्यात्रिरात्रात्रिरात्रात्षष्ठे षष्ठे मास्यसृङ्मोक्षणानि ॥ ९६ ॥ कुष्ठरोगी पंद्रह पंद्रह दिनोंमें वमनको सेवतारहै और महीने महीनेमें जुलाबको सेवतारहै और तीन तीन रात्रीमें माथेके जुलाबको लेतारहै और छठे छठे महीनेमें रक्तको निकालतारहै ॥९॥
यो दुर्वान्तो दुर्विरिक्तोऽथवा स्यात्कुष्ठी दोषैरुद्धतैयाप्यतेड सौ॥ निःसन्देहं यात्यसाध्यत्वमेवं तस्मात्कृत्स्नान्निर्दहेदस्य दोषान् ।। ९७ ॥
अच्छीतरह वमन और विरेचनसे वर्जितहुआ जो कुष्टी उद्धृतहुये दोषोंसे व्याप्त हेचि वह संदेहके विनाही असाध्यपनेको प्राप्त होताहै तिस हेतुसे इस कुष्ठरोगीके संपूर्ण दोषोंको निकासै ॥ ९७ ॥
व्रतदमयमसेवात्यागशीलाभियोगोद्विजसुरगुरुपूजा सर्वसत्त्वे षु मैत्री ॥ शिवशिवसुतताराभास्कराराधनानि प्रकटितमल पापं कुष्ठमुन्मूलयन्ति ॥९८॥ व्रत इंद्रियोंका दमन नियम इन्होंकी सेवा और त्याग और शीलस्वभावका अभ्यास और ब्राह्मण देवता गुरुकी पूजा और सब प्राणियोंके मित्रभाव और शिव गणेश तारागण सूर्य इन्होंका औरा. धन ये सब कहेड्डये मल और पापवाले मनुष्यके कुष्ठको जडसे नाशतेहैं ॥ ९८ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसहिताभाषाटीकायां
चिकित्सितस्थाने एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
विंशोऽध्यायः । अथातः श्वित्रकृमिचिकित्सितं व्याख्यास्यामः इसके अनंतर श्वित्र कृमिचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
कुष्टादपि बीभत्सं यच्छीघ्रतरञ्च यात्यसाध्यत्वम् ॥ श्वित्रमतस्तच्छान्त्यै यतेत दीप्ते यथा भवने ॥१॥
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