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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ६५१)
क्योंकि प्रायताकरके दोषों के समूहसे उपजनेवाले सब उदररोग होते हैं ॥ १२० ॥ इस कार - सेवा आदिको शांत करनेवाली सब क्रिया श्रेष्ठहैं ॥
वह्निर्मन्दत्वमायाति दोषैः कुक्षौ प्रपूरिते ॥ १२१ ॥ तस्माद्भोज्यानि भोज्यानि दीपनानि लघूनि च ॥ सपञ्चमूलान्यल्पाम्ल पटुस्नेहकटूनि च ॥ १२२ ॥
और दोषोंकर के पूरित हुई कुक्षिमें अग्नि मंदभावको प्राप्त होता है ॥ १२१ ॥ तिस कारण से दीपन और हलके और पंचमूलकरके संयुक्त और अल्परूप खटाई नमक स्नेह कटुद्रव्य इन्होंसे संयुक्त भोजन भोजन करने के योग्य है ॥ १२२ ॥
भावितानां गवां मूत्रे षष्टिकानां च तण्डुलैः ॥ यवागूं पयसा सिद्धां प्रकामं भोजयेन्नरम् ॥ १२३ ॥ पिवेदिक्षुरसं चानु जठराणां निवृत्तये ॥ स्वं स्वं स्थानं व्रजन्त्येषां वातपित्तकफास्तथा ॥ १२४॥
गाय के मूत्र में भावित किये शांठिचावलों करके बनी हुई और दूधमें सिद्ध हुई ऐसी यवागूको इच्छा के अनुसार तिस मनुष्यको खाव ॥ १२३ ॥ पश्चात् उदररोगों की शांति के अर्थ ईख के रसका पान करावै इनकरके उदररोगियों को वात पित्त कफ अपने २ स्थानको प्राप्त होते हैं १२४ ॥ अत्यर्थोष्णाम्ललवणं रूक्षं ग्राहि हिमं गुरु ॥
गुडं तैलकृतं शाकं वारिपानावगाहयोः ॥ १२५ ॥ आयासाध्वदिवास्वप्नयानानि च परित्यजेत् ॥
अत्यंत गरम अत्यंत खड्ट्टा अत्यंत सलोनां रूखा ग्राही शीतल भारा गुड तेल करके किया शाक पीने और न्हाने में पानी ॥ १२५ ॥ परिश्रम मार्गगमन दिनका शयन असवारीपै चढना होय ॥
नात्यर्थसान्द्रं मधुरं तकं पाने प्रशस्यते ॥ १२६ ॥ सकणालवण वाते पित्ते सोषणशर्करम् ॥ यवानीसैन्धवाजाजीमधुव्योषैः कफोदरे ॥ १२७॥ यूपणक्षारलवणैः संयुतं निचयोदरे ॥ मधु तैलवचाशुण्ठीशताह्वाकुष्ठसैन्धवैः ॥ १२८ ॥ ली हि वृद्धे तु हपुपायवानीपट्टजादिभिः ॥ सकृष्णामाक्षिकं छिद्रे व्योषवत्सलिलोदरे ॥ १२९ ॥
और न अत्यंत करडा हो और मधुर हो ऐसा तक पीनेमें श्रेष्ठ है ॥ १२६ ॥ वासोदर में पीपल और नमकसे संयुक्त किये तकको पी और पित्तोदरमें मिरच और खांडसे संयुक्त किये तक्रके पीवै और कफोदरमें अजवायन सेंधानमक जीरा शहद सूंठ मिरच पीपलसे संयुक्त
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