SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) अष्टाङ्गहृदयेदृष्टान्तसे ही देतेहैं । "विषेणेव विषाक्रमः" इस पदत्रयसे जैसे कि विष जीवितका नाशक है और उसी विषसे विषक्रिमि ( जो विषका कीडा ) का जन्म अर्थात् प्रकृतिसम्भव देखा जाताहै । तिसही रीतिसे इन दूषणस्वभाव अर्थात् प्रमाणसे अधिकभी शुक्रशोणितमें स्थितही इन दोषोंकरके शरीरकी सिद्धि होसकती है। अब वातआदि दोषोंके लक्षणोंको वर्णन करतेहैं । तत्र रूक्ष इत्यादि श्लोकोंसे तत्र रूक्षो लघुः शीतः खरः सूक्ष्मश्चलोऽनिलः । तिन दोषों रूक्ष और हलका और शीतल और खर और तीक्ष्ण और सूक्ष्म वात है । पित्तं सस्नेहतीक्ष्णोष्णं लघु वित्रं सरं द्रवम् ॥ ११ ॥ स्नेहसे संयुक्त और तीक्ष्ण और उष्ण और हलका और विस्त्र अर्थात् दुर्गन्धि ( मत्स्यके मांसके । गन्धके समान दुष्टगन्धवाला ) और सर अर्थात् व्यापनशील, गमनशील नीचे ऊपर चलतारहै, स्थिर होके न रहनेवाला, विष्ठाको नीचेको गिरवानेवाला, और द्रव पित्त होताहै । स्निग्धःशीतो गुरुर्मन्दः श्लक्ष्णो मृत्स्नः स्थिरः कफः॥ चिकना और शीतल और भारी और मन्द और सूक्ष्म और मृत्स्न अर्थात् पिच्छिलगुणवाला और स्थिर कफ है। अब मिश्रित अर्थात् मिलेहुये, दोषोंकी दो संज्ञाओंको शास्त्रके व्यवहारके लिये कहतेहैं संसर्गः इस वृत्तार्द्धसे संसर्गः सन्निपातश्च तद्वित्रिक्षयकोपतः ॥ १२ ॥ अपने प्रमाणसे अधिक अथवा न्यून हुये जो दो दोषोंका संयोगहै सौ संसर्ग कहलाता है और अपने प्रमाणसे क्षीण अथवा बढेहुवे जो तीनों दोषोंका संयोग सो सन्निपात कहलाता हैं। अब दोषोंको कहके धातुओंको कहतेहैं रसासृङ्मांस इत्यादि सचतुरक्षरवृत्तार्द्धसे- . रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः ॥ सप्त दूष्याः ॥ रस-रक्त-मांस मेद–हड्डी-मज्जा-वीर्य्य ये सात धातुसंज्ञक हैं । शरीरको धारण करते हैं इससे यह धातु हैं । और दूष्यभी कहलातेहैं । क्योंकि वात आदिकोंसे दूषणको प्राप्त होते हैं । जिस दूषणस्वभावधर्मसे बात आदिकोंकी दोष संज्ञा है सो अन्वर्थसंज्ञा है अर्थात् अपने स्वाभविक अर्थक सदृश अर्थको कहनेवाली है । जैसे कि "दूषयन्तीति दोषाः । किसी वस्तुको दूषितकरें वह दोष कहलाते हैं । इससे दोषसंज्ञाको धारण For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy