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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (५८३ ) अतिसारं जयेच्छीघ्र त्रिदोषमपि दारुणम्॥ ९०॥ और लाख संठ पीपल कुटकी दारुहलदीकी छाल करके ॥ ८९ ॥ और इंद्रजवोंकरके सिद्ध की पेया और मंडकरके अवचारित किया घृत त्रिदोषसे उपजे दारुण अतिसारकोभी तत्काल जीतता है ॥ ९॥
कृष्णमृच्छंखयष्टयाह्वलोद्रासृक्तण्डुलोदकम् ॥
जयत्यत्रं प्रियंगुश्च तण्डुलाम्बुमधुप्लुता ॥ ९१ ॥ कालीमाटी शंख मुलहटी शहद लालचावलोंका पानी अथवा चावलोंके पानी और शहदमें मिली हुई प्रियंगु रक्तको जीतती है ॥ ९१ ॥
कल्कस्तिलानां कृष्णानां शर्करापाञ्जभागिकः॥
आजेन पयसा पीतः सद्यो रक्तं नियच्छति ॥ ९२ ॥ कालेतिलोंके कल्कमें पांचवें भागसे खांड मिला बकरीके दूधके संग पान करै यह तत्काल रक्तको शांत करता है ॥ ९२ ॥
पीत्वा सशर्कराक्षौद्रं चन्दनं तण्डुलाम्बुना ॥
दाहतृष्णाप्रमेहेभ्यो रक्तस्रावाच्च मुच्यते ॥९३॥ चावलोंके पानीके संग शहद और खांडसे संयुक्त किये चंदनका पान करके मनुष्य दाह तृषा प्रमेह रक्तस्रावसे छूट जाता है ॥ ९३ ॥
गुदस्य दाहे पाके वा सेकलेपा हिता हिमाः ॥ गुदाके दाहमें और पाकमें शीतल सेंक अथवा लेप हित है॥
अल्पाल्पं बहुशो रक्तं सशूलमुपवेश्यते ॥ ९४ ॥ यदा विबद्धो वायुश्च कृच्छ्राच्चरति वा न वा॥ पिच्छाबस्ति तदा तस्य पूर्वोक्तमुपकल्पयेत् ॥९५॥ जो अल अल्प और शूलसे संयुक्त रक्तको गुदाके द्वारा निकालै और ॥ ९४ ॥ जब विबद्ध हुआ वायु कष्टसे विचरे अथवा नहीं विचरे तिस मनुष्यके अर्थ पूर्वोक्त पिच्छाबस्ती कल्पित करनी योग्य है ॥ ९५ ॥
पल्लवाञ्जर्जरीकृत्य शिशिपाकोविदारयोः॥ पचेद्यवांश्च स क्वाथो घृतक्षीरसमन्वितः ॥९६ ॥ पिच्छास्त्रुतौ गुदभ्रंशे प्रवाहणरुजासु च ॥ पिच्छाबस्तिः प्रयोक्तव्यः क्षाक्षीणवलावहः ॥९७॥
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