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(५४८)
अष्टाङ्गहृदये
शीतल लेप, मणी, सेक, वीजनेकी पवन, मिसरी, दाख, ईख, खंभारीका रस ॥ १०२ ।। और मधुरवर्गमें सिद्ध किया दूध, और अनार करके सहित यूष तथा मांस, शाठिचावल, लालशालिचावल, जव, घृत, और जीवनीय घृत ॥ १०३ ॥ कल्याण घृत उन्मादप्रतिषेधमें कहाहुआ महातिक्त घृत कुष्टचिकित्सामें कहा हुआ षट्फल घृत राजयक्ष्मचिकित्सामें कहा हुआ दूधके संग चीता और रसायन विधानसे पीपली अथवा रसायन विधान करके शिलाजीत ॥१०४॥ अथवा घृत खांड शहद इन्होंसे संयुक्त त्रिफला ये सब मद और मूर्छायरोगमें प्रयुक्तकरने हितहैं ।
प्रसक्तवेगेषु हितं मुखनासावरोधनम् ॥ १०५॥ पिबेद्वा मानु. षक्षिीरं तेन दद्याच नावनम् ॥ मृणालबिसकृष्णा वा लियारक्षौद्रेण साभयाः॥१०६॥दुरालभां वा मुस्तां वाशीतेन सलिलेन वा ॥ पिबेन्मरिचकोलास्थिमजोशीराहिकेसरम् ॥१०७॥ धात्रीफलरसे सिद्धं पथ्याक्वाथेन वा घृतम् ॥
और प्रसक्त वेगोंवाले मद आदिमें हाथले मुख और नासिकाका अवरोध करना हितहै!। १ ०५॥ अथवा नारीके दूधको पावै, अथवा नारीके दूधकरके नस्य देवै और कमलकी डंडी कमलकंद पीपल हरडै शहदको मिलाके चाटै ॥ १०६ ॥ अथवा धमासाको वा नागरमोथाको शहदमें मिलाके चाटै अथवा शीतलपानीके संग मिरच बेरकी गुठली तथा मज्जा खश नागकेशरको पीकै ॥ १०७ ॥ अथवा आंवले के रसमें सिद्ध अथवा हरडोंके काथमें सिद्ध घृतको पीने ॥ कुर्यान्क्रियां यथोक्तां च यथादोषबलोदयम् ॥१०८॥ पञ्चक
आणि चेष्टानि सेचनं शोणितस्य च॥सत्त्वस्यालम्बनं ज्ञानमवृद्धिर्विषयेषु च ॥ १०९ ॥
और दोष और बलके उदयके अनुसार करके यथायोग्य कहीहुई क्रियाको करै ॥ १०८ ।। वमन विरेचन आस्थापन अन्वासन नस्य ये पांच कर्म और रक्तका निकासना सत्वगुणका आश्रय ज्ञान और विषयोंमें अभिलाषका अभाव ये सब करना चाहिये ॥ १०९॥
मदेष्वतिप्रवृद्धेषु मूर्छायेषु च योजयेत् ॥
तीक्ष्णं संन्यासविहितं विषघ्नं विषजेषु च ॥ ११० ॥ आतिबढे हुये मदोंमें और मूर्छायरोगोंमें संन्यासरोगमें कहेहुये नस्यको प्रयुक्त करे और विषसे उपजे मदोंमें विषनाशक चिकित्साको प्रयुक्त करै ॥ ११० ॥
आशु प्रयोज्यं संन्यासे सुतीक्ष्णं नस्यमञ्जनम्॥ धूमप्रधमनंतादः सूचिभिश्च नखान्तरे ॥१११॥ केशानां लुञ्चनं दाहो दंशो
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