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(५४०)
अष्टाङ्गहृदयेरोगमें करै एसे जानलेना और दालचीनी नागकेशर पीपल मिरच जीरा धनियाँ इन्होंकरके ॥४॥ और फालसा मुलहटी इलायची देवदार मिसरी इन्होंकरके युक्त और हृदयो हित और कपूरकरके अधिवासित कैथका रस ॥ ४६ ॥ सब प्रकारके मदात्ययरोगोंमें पीना हितहै यह रुचि और अग्निको दीपन करताहै ॥
नाविक्षोभ्य मनो मद्यं शरीरमविहन्य वा॥४७॥ कुर्य्यान्मदात्ययं तस्मादिप्यते हर्षणी क्रिया ॥ और मदिरा मनको क्षोभित करके और शरीरको नष्ट करके ॥ ४७ ॥ मदात्ययरोगको करतीहै तिस कारणसे तहां आनंदको करनेवाली क्रिया हितहै ॥
संशुद्धिशमनायेषु मददोषः कृतेष्वपि ॥४८॥ न चेच्छाम्येकफे क्षीणे जाते दौर्बल्यलाघवे ॥ तस्य मद्यविदग्धस्य वातपित्ताधिकस्य च ॥ ४९॥ ग्रीष्मोपतप्तस्य तरोर्यथा वर्ष तथा पयः ॥ मद्यक्षीणस्य हि क्षीणं क्षीरमाश्वेव पुष्यति॥ ५० ॥ ओजस्तुल्यं गुणैः सर्वैविपरीतं च मद्यतः ॥
और संशुद्धि तथा शमन आदि चिकित्साको करने पश्चात्भी मददोष ॥ ४८ ॥ नहीं शांत होताहै तब क्षीणरूप कफके होनेमें और अल्पप्रमाण कृशपने होनेमें मद्य करके विदग्ध और वात
और पित्तकी अधिकतावाले तिस रोगीको दूध पथ्यहै ॥ ४९ ॥ जैसे ग्रीष्मऋतुकरके दग्ध हुये वृक्षको वर्षा ऐसही मद्यकरके क्षीण हुये मनुष्यके क्षीणपनेको दूध तत्काल पुष्ट करता है ॥ ५० ॥ क्योंकि गुणोंकरके दूध पराक्रमके तुल्य है और गुणोंकरके मदिरासे विपरीत है ॥
पयसा विजिते रोगे बले जाते निवर्त्तयेत् ॥५१॥ श्रीरप्रयोगं मयं च क्रमेणाल्पाल्पमाचरेत्॥ न विटक्षयध्वंसकोत्थैः स्पृशेनोपद्रवैर्यथा ॥५२॥ तयोस्तु स्याद्धृतं क्षीरं बस्तयो बृहणाः शिवाः॥ अभ्यंगोद्वर्तनस्तानमन्नपानं च वातजित् ॥ ५३ ॥
और जब दूध करके मदात्ययरोगकी निवृत्ति होजावे और बलकी उत्पत्ति होजावे तब ॥५१॥ दूधके प्रयोगको निवृत्त करै और क्रमकरके अल्प अल्प मद्यको सबै परंतु विष्ठाके क्षयसे उपजे शरीर और शिरके रोग आदि और ध्वसकसे उपजे कफका थूकना आदि इन उपद्रवोंसे स्पर्शित नहीं होवे तैसे ॥ ५२॥ और तिन दोनों पूर्वोक्त उपद्रवों में घृत दूध बृंहण और कल्याणरूप बस्तिकर्म और अभ्यंग उद्वर्तन स्नान और वातके जीतनेवाले अन्न तथा पान हितहैं।॥५३॥
युक्तमद्यस्य मद्योत्थो न व्याधिरुपजायते ॥ अतोऽस्य वक्ष्यते योगो यः सुखायैव केवलम् ॥ ५४॥
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