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(५३२)
अष्टाङ्गहृदये
मुलहीको जल में पकाके पीवै अथवा ज्वरचिकित्सितमें कहा दाख मुलहटी इन आदिकर के शीतल कषायको पी अथवा रक्तपित्तचिकित्सित में कहे मुलहटी खजूर मुनका इनआदिके पानीको पीवे ॥ ७० ॥
कफोद्भवायां वमनं निम्बप्रसववारिणा ॥ बिल्वाढकपिञ्चकोलदर्भपञ्चकसाधितम् ॥ ७१ ॥ जलं पिबेद्रजन्यां वा सिद्धं सक्षौद्रशर्करम् ॥ मुद्रयूषं च सव्योपपटोलीनिम्बपल्लवम् ॥ ७२ ॥ यवान्नं तीक्ष्णकवलनस्यलेहांश्च शीलयेत् ॥
कफसे उपजी तृषामें नींब से उपजे पानी करके बमनका लेना श्रेष्ठ है अथवा बेलागरी तुरीधान्य पीपल पीपलामूल चव्य चीता सूंठ दर्भपंचक करके साधित किये ॥ ७१ ॥ जलको पीवै अथवा हलदीकरके सिद्ध जलको पीवै अथवा खांडू और शहद से संयुक्त और सूंठ मिरच पीपल परवल नींबके पत्तेसे संयुक्त मूंग यूपको पीवै ॥ ७२ ॥ जत्रोंका अन्न और तीक्ष्णकवल और तीक्ष्णनस्य तीक्ष्ण अवलेहका अभ्यास करे ||
सर्वैरामाच्च तद्धन्त्री क्रियेष्टा वमनं तथा ॥७३॥ त्र्यूषणारुष्करवचाफलाम्लोष्णाम्बुवस्तुभिः अन्नात्ययान्मण्डमुष्णं हिमं मन्थं च कालवित् ॥ ७४ ॥ तृषिश्रमान्मांसरसं मद्यं वा ससितं पिबेत् ॥
और सन्निपात और आमसे उपजी तृषामें सन्निपात और आमको हरनेवाली क्रिया करे || ७३ ॥ अथवा सूंठ मिरच पीपल भिलावाँ वच मैंनफल फलकी कांजी अथवा बिजोरेका रस उष्णपानी, दहीका पानी इन्होंकरके चमन लेना हित है, अन्नके विरहसे उपजी तृपामें मंड और उष्ण तथा शीतल मंथको काल और प्रकृतिको जानने वाला मनुष्य पीवै ॥ ७४ ॥ परिश्रमसे उपजी तृप में मांसके रसको अथवा मिसरी सहित मदिराको पीवै ॥
आतपात्ससितं मन्थं यवकोलाम्बुसक्तुभिः ॥ ७५ ॥ सर्वाण्यङ्गानि लिम्पेच्च तिलपिण्याककांजिकैः ॥ शीतस्नानात्तु मद्याम्बु पिवेत्तृण्मान्गुडाम्बु वा ॥ ७६ ॥ मद्यादर्द्धजलं मद्यं स्नातोऽम्ललवणैर्युतम् ॥
और घामसे उपजी तृषामें जब बेर नेत्रवालेसे उपजे सत्तुओंकरके बना हुआ और मिसरीसे • संयुक्त मन्थको पीवै ॥ ७५ ॥ और तिलोंके कल्क और कांजीकर के सब अंगों को लेपित करै, और शीतल जलमें स्नानकियेसे उपजी तृषा में मदिरा और पानीको तथा गुडके सर्वतको पीवै ॥ ७६ ॥ और मदिराके पीनेसे उपजी तृषामें स्नान करके पीछे खड्डारस और लवणसे संयुक्त मदिरा बराबरका पानी मिलाके पीवै ॥
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