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(५३०)
अष्टाङ्गहृदयेमनुष्य कूठ बायविडंग सेंधानमक कालानमक शाबरलोध देवदार अतीशके चूरनको गरमपानीके संग पीवै ॥ ५५ ॥ जिस मनुष्यके जीर्णहुए अन्नमेंभी अधिक शूल हों और विरचनद्रव्योंमें सिद्ध. किये स्नहोंकरके जीर्णहुई अन्नमेंभी शूल उपजै यह मनुष्य फिर फैलोंकरके विरेचनके योग्यहै और जिसके फिर सबकालमें अधिकशूल रहै यह तीक्ष्णरूप और जडरूप निशोतआदि औषधोंकरके विरचित करना योग्यहै सातला शंखिनी दन्ती मूषाकर्णी कोयल निसोत गौर्यासाड पूतीकरंज. खिरनी विधारा इन्द्रायन कालानिसोत ये तीक्ष्णरेचनद्रव्यहैं ॥ १६ ॥
प्रायोऽनिलो रुद्धगति कुप्यत्यामाशये गतः ॥
तस्यानुलोमनंकार्य शुद्धिलंघनपाचनैः ॥ ५७॥ विशेषताकरके रुकेहुये मार्गवाला वायु आमाशयमें प्राप्त होके कुपित होताहै, तब तिस वायुको शुद्धि लंघन पाचन करके अनुलोमन करना योग्यहै ॥ १७ ॥
कृमिनमौषधं सर्वं कृमिजे हृदयामये ॥ तृष्णासु वातपित्तन्नो विधिः प्रायेण युज्यते ॥ ५८॥ सर्वासु शीतो बाह्यान्तस्तथा
शमनशोधनम् ॥ .. कृमियोंसे उपजे हृद्रोगमें कृमियोंको नाशनेवाला औषध हित है और सब प्रकारकी तृषाओंमें प्रायः करके वातपित्तको नाशनेवाली विधि युक्त कीजाती है ॥ ५८ ॥ और बाह्य तथा भीतरसे शीतलविधि तथा शमन और शोधन हित है ॥ दिव्याम्बुशीतं सक्षौद्रं तद्वद्भौमं च तद्गुणम्॥५९॥ निर्वापितं तप्तलोष्टकपालसिकतादिभिः॥सशर्करं वा कथितं पञ्चमलेन वा जलम्॥६०॥दर्भपूर्वेण मन्थश्चप्रशस्तोलाजसक्तुभिः।वाट्य श्चामयवैः शीतःशर्करामाक्षिकान्वितः॥६१॥यवागःशालिभिस्तद्वत्कोद्रवैश्च चिरन्तनैः॥ शीतेन शीतवीय्र्यैश्च द्रव्यैःसिद्धेन भोजनम् ॥ ६२ ॥ हिमाम्बुपारषिक्तस्य पयसा ससितामधु॥ रसैश्चानम्ललवणैर्जाङ्गलैघृतभर्जितैः ॥ ६३ ॥ मुद्गादीनां तथा यूपैर्जीवनीयरसान्वितैः॥ नस्यं क्षीरघृतं सिद्धं शीतैरिक्षोस्तथा रसैः॥६४॥ निर्वापणाश्च गण्डूषाः सूत्रस्थानोदिता हिताः ॥ दाहज्वरोक्ता लेपाद्या निरीहत्वं मनोरतिः ॥६५॥ महासरिद्रिदादीनां दर्शनस्मरणादि च ॥
१ मृद्वीका ( दाख) वायाबडंग खजूर-परूषक (फालसा) आरग्वध ( अमलतास ) आमला हरड बहेडा कंपिल ( कवीला ) त्रपुस ( खीरा ) मकूलक (दंती) नालिका ( नील )कुवल (वकूला) पीलु (फल) यह फल विरेचन है ॥.
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