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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
चतुर्थोऽध्यायः ।
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(५०५ )
अथातः श्वासहिध्माचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर श्वास और हिचकीके चिकित्सित नामक अध्यायकी व्याख्यावर्णन करेंगे । श्वासहिध्मावयस्तुल्यहेत्वाद्याः साधनं ततः ॥ १॥ तुल्यमेव तदातंच पूर्व स्वेदैरुपाचरेत् ॥ स्निग्धैलवणतैलाक्तं तैः खेषु ग्रथितः कफः॥ २॥ सुलीनोऽपि विलीनोऽस्य कोष्ठं प्राप्तः सुनिर्हरः ॥ स्रोतसां स्यान्मृदुत्वं च मारुतस्यानुलोमता ॥ ३ ॥
जिसकारण से श्वास और हिचकीके निदानभादि समान हैं तिसी कारण से श्वास और हिचकी की चिकित्सा भी समानही जाननी ॥ १ ॥ श्वास और हिचकी से पीडित मनुष्यको पहिले स्निग्धरूप लत्रण और तेलसे अभ्यक्तकर स्वेदकमसे साधितकरै तिन स्वेदोंकर के शरीर के छिद्रों में पंडितरूप कफ ॥ २ ॥ श्वास और हिचकीवाले इस रोगीको अत्यंत करके स्रोतोंमें लिष्ट हुआ कफ कर्तव्यता करके विलीन हुआ और कोष्ठमें प्राप्त हुआ कफ सुख करके निकसने को समर्थ होता है। तब स्रोतोंका कोमलपना और वायुका अनुलोमपना हो जाता है ॥ ३ ॥
स्विन्नं च भोजयेदन्नं स्निग्धमानृपजै रसैः॥ दध्युत्तरेण वा दद्याततोऽस्मै वमनं मृदु ॥४॥ विशेषात्कासवमथुद्ध दूग्रहस्वरसादि॥ पिप्पली सैन्धवक्षौद्रयुक्तं वातविरोधि यत् ॥ ५॥ निर्हृते सुखमाप्नोति सकफे दुष्टविग्रहे ॥ स्रोतःसु च विशुद्धेषु चरत्यविहतोऽनिलः ॥ ६ ॥
और तिस स्वेदित किये रोगीको अनूपदेशके मांसोंके रसके संग स्निग्ध अन्नका भोजन करावे अथवा स्वेदकर्मके पश्चात् इस रोगीके अर्थ दहीके सार करके कोमल वमनको देवै ॥ ४ ॥ विशेषतासे खांसी छर्दि हृदयका बंधना स्वरकी शिथिलता आदि रोगों से पीडितके अर्थ पीपल शहद सेंधानमक से युक्त और वातको नहीं करनेवाले वमनको देवै ॥ ५ ॥ शररिके दुष्ट करनेवाले कफके निकसनेमें श्वास और हिचकीवाला मनुष्य सुखको प्राप्त होता है और विशेष करके शुद्ध हुये स्त्रोतों में अभिहत गतिवाला वायु विचरता है ॥ ६॥
धमानोदावर्त्ततम के मातुलिङ्गाम्लवेतसैः ॥ हिङ्गुपीलुविडैर्युक्तमन्नं स्यादनुलोमनम् ॥ ७ ॥ ससैन्धवं फलाम्लं वा कोष्णं दद्याद्विरेचनम् ॥