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(५००)
अष्टाङ्गहृदयेपालिकं सैन्धवं शुण्ठी द्वे च सौवर्चलात्पले ॥ कुडवांशानि वृक्षाम्लं दाडिमं पत्रमार्जकम् ॥ १४१ ॥ एकैका मरिचाजाज्योर्धान्यकाढे चतुर्थिक ॥ शर्करायाः पलान्यत्र दश द्वे च प्रदापयेत् ॥ १४२ ॥ कृत्वा चूर्णमतोमात्रामन्नपानेषु दापयेत्॥ रुच्यं तद्दीपनं बल्यं पाार्तिश्वासकासजित् ॥ १४३ ॥ सेंधानमक ४ तोल सुंठ ४ तोले कालानमक ८ तोले बिजोरा अनार आजबलाकापत्र प्रत्येक १६तोले ॥ १४ १ ॥ मिरच और चार चार तोले जीरा ५ तोल धनियां और खांड ४८ तोले इन्होंको मिलावै ॥१४२॥ पीछे चूर्णकर अन्न और पानी में मात्राके अनुसार देवै यह रुचिमें हितहै और दीपनहै और बलमें हितहै और पशली पीडा श्वास खांसीको जीतताहै ॥ १४३ ॥
एका पोडशिकां धान्यावे द्वे वाऽजाजिदीप्यकात् ॥ तान्य दाडिमवृक्षाम्लैदिद्विसौवर्चलात्पलम् ॥ १४४ ॥ शुण्ड्याःकर्ष दधित्थस्य मध्यात्पञ्च पलानि च ॥ तच्चूर्ण षोडशपलैःशर्कराया विमिश्रयेत् ॥ १४५ ॥ खाण्डवोऽयं प्रदेयः स्यादन्नपानेषु पूर्ववत् ॥ धनियां १ तोला जीरा और अजमोद दो दो तोले अनार और बिजोरा आठ आठ तोले और कालानमक ४ तोले ।। १४४ ॥ सूंठ एक तोला और कैथको मज्जा २ तोले और खाँड ६४ तोले इन सबोंको मिलावै ।। १४५ ॥ यह खांड व अन्न और पानीमें पहिलेकी तरह देना योन्यहै ।। विधिश्च यक्ष्मविहितो यथावस्थं क्षते हितः ॥ १४६ ॥ निवृत्ते क्षतदोषे तु कफे वृद्धे उरःशिरः॥ दाल्यते कासिनो यस्य सधृ. मान्प्रपिबेदिमान् ॥ १४७॥
और यक्ष्मचिकित्सितमें कहीहुई विधि अवस्थाके अनुसार क्षतमेंभी हितहै ॥ १४६ ॥ और निवृत्त हुये क्षतके दोषमें और कफकी वृद्धिमें खांसीवाले मनुष्यके छाती और शिर फटा करता है इसवास्ते यह रोगी इन वक्ष्यमाण धूमोंको पावै ।। १४७ ॥ द्विमेदाद्विवलायष्टीकल्कैः क्षौमे सुभाविते॥ वर्ति कृत्वा पिवेदमं जीवनीयघृतानुपः ॥ १४८॥ मनःशिलापलाशाजगन्धा त्वक्षीरनागरैः।तद्वदेवाऽनुपानं तु शर्करेक्षुगुडोदकम्॥१४॥ पिष्ट्वा मनःशिला तुल्यामायावटशृङ्गया। ससर्पिष्कं पिवेदमं तित्तिरिप्रतिभोजनम् ॥१५० ॥
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