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(४८०)
अष्टाङ्गहृदयेवतंशकृत्॥अतिनिःसृतरक्तश्च क्षौद्रण रुधिरं पिबेत् ॥ २९ ॥ जांगलंभक्षयेद्वाजमामपित्तयुतं यकृत् ॥
अच्छतिरह शीतल किया और खांडसे युक्त ढाककी छालका क्वाथ रक्तपित्तको हरताहै और गाय और घोडेकी लीदके रसको शहद और घृतके संग पीवै तो रक्तपित्तका नाश होताहै ॥२८॥ प्रथितहुये रक्तपित्तो परेवापक्षीकी वीटमें शहद मिलाकर चाटना हितहै और अत्यंतनिकसेहुये रक्तवाला रोगी शहदके संग जांगलदेशके जीवका रक्त पीव ॥ २९ ॥ अथवा आम और पित्तसे संयुक्त बकरेके यकृतको खावै ॥
चन्दनोशीरजलदालाजामुद्गकणायवैः ॥३०॥
बलाजले पर्युषितैः कषायो रक्तपित्तहा ॥ और चंदन खश नागरमोथा धानको खील मूंग पीपल यत्र इन्होंको सायंकाल पानीमें भिगोय ॥ ३० ॥ पीछे आगलेदिन खरैहटीके पानीमें बनाया काथ रक्तपित्तको हरता है ।।
प्रसादश्चन्दनाम्भोजसेव्यं मद्धृष्टलोष्टनः॥३१॥सुशीतःससिता क्षौद्रः शोणितातिप्रवृत्तिजित् ॥ आपोथ्य वा नवे कुम्भे प्लाव. येदिक्षुगण्डिकाः ॥३२॥ स्थितं तद्गुप्तमाकाशे रात्रि प्रातः शृ
तं जलम् ॥ मधुमृद्वीकजाम्भोजकृतोत्तंसं च तद्गुणम् ॥ ३३ ॥ . चंदन कमल कालाबाला माटीसे रहित लोह || ३१ ।। अच्छीतरह सिलकिया मिसरी तथा शहदसे संयुक्त ऐसा यह योग रक्तआदिकी प्रवृत्तिको जीतताहै और ईखकी टोरिवोंको प्रथम अच्छी तरह कट पीछे नवीनघटके जलमें प्राप्तकरै ॥ ३२॥ पीछ गुप्तकिया अर्थात् उसमें कोई जीव न पडसके वह घट एकरात्रिमात्र आकाशमें स्थितकरै पीछे प्रभातमें तिस पानीको पकाये फिर शहद मुनका कमलसे संयुक्तकर पीनेसे रक्तपित्तका नाश होताहै ॥ ३३ ॥
ये च पित्त ज्वरे प्रोक्ताः कषायास्तांश्च योजयेत् ॥कषायैर्विविधैरेभिर्दीतेऽग्नौ विजितेकफेरक्तपित्तं न चेच्छाम्येत्तत्र वातोल्वणेपयः॥३४॥युज्याच्छागं शृतं तद्वद्गव्यं पञ्चगुणेऽम्भसि॥ पञ्चमूलेन लघुना शृतं वा ससितामधु ॥३५॥ जीवकर्षभकद्राक्षा बलागोक्षुरनागरैः॥पृथक्पृथक्कृतं क्षीरं सघृतं सितयाऽ थवा ॥३६॥ पित्तज्वरमें जो काथ कहेहैं वेभी शहदसे संयुक्तकिये इस रक्तपित्तमें योजितकरै इन अनेकप्रकारके क्वाथों करके दीप्तहुये ‘अग्निमें और जातेहुये कफमें जो रक्तपित्त नहीं शांत होवे तो तहां वातकी अधिकतावाले रक्तपित्तों ॥ ३४ ॥ पांचगुणे पानी में पकायाहुआ वकरीका दूध देना योग्य
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