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• (४६६)
अष्टाङ्गहदयेमोदकं त्रिफलाइयामात्रिवृत्पिप्पालंकेसरैः॥ससितामधुभिर्दद्याव्योषाद्यं वा विरेचनम् ॥ ९९ ॥ आरग्वधं वा पयसा मृद्वीकानां रसेन वा ॥
और जो इस पूर्वोक्त प्रकार करके ज्वर शांत नहीं होवे तो तिसको जुलाब दिवावै और शोधन करवाने लायकहो तिसको पहले कहाहुआ वमन दिवावै ॥ ९७ ॥ और दोष आमाशयको प्राप्त होजावे तब बलीपुरुषके बलकी रक्षा करताहुवा वमन दिवावै और दोष पकजावे अथवा शिथिल होजावे तथा विषसे उपजाहुआ अथवा मदिरासे उपजाहुआ ज्वरहो ॥ ९८॥ तो इन्होंमें त्रिफला, निशोत, मालवामें होनेवाला निशोत, पीपल, केशर, इन्होंके मोदक बना, अथवा व्योषादिक झूठ मिरच पीपल इत्यादिक औषधोंके मोदकोंसे जुलाब दिवाना हित है ।। ९९ ॥ अथवा अमलतासको दूध करके अथवा मुनक्कादाखके रस करके ।
त्रिफलां त्रायमाणं वा पयसा ज्वरितः पिबेत् ॥ १०॥
विरिक्तानां स संसर्गी मण्डपूर्वा यथाक्रमम् ॥ अथवा त्रिफला, ब्रायमाण इन्होंको दूधके संग ज्वरी पुरुष पीवै ॥१००॥ और जुलाब दिवायेहुए । तथी वमनदिवायेहुए पुरुषों को पहले मांड, पीछे धात्र्यादि ऐसे यथाक्रमसे दिवावै ॥
च्यवमानं ज्वराक्लिष्टमुपेक्षेत मलं सदा॥१०१॥ पक्केऽपिहि विकुर्वीत दोषः कोष्ठे कृतास्पदः ॥ अतिप्रवर्तमानं वा पाचयसंग्रहं नयेत् ॥ १०२ ॥
और ज्वर करके उक्लेशित, गिरते हुए मल अर्थात् विषआदिको सदा देखे ॥ १.१॥ और जो मल पकजावे तो, कोष्ठस्थानमें किये हुए स्थानवाला दोष विकारको प्राप्त हो जाना है और अति प्रवृत्त हुये मलको पकाता हुआ संग्रह कर देता है ॥ १०२॥
आमसंग्रहणे दोषा दोषोपक्रम ईरिताः॥ और आमका संग्रह होनेमें दोष, दोषोपक्रमअध्यायमें कहेहुए होजाते हैं ।
पाययेदोषहरणं मोहादामज्वरे तु यः ॥ १०३ ॥ · प्रसुप्तं कृष्णसर्प च कराग्रेण परामृशेत् ॥ अर्थात् तब दोषोंका धारण रखनाही उचित है और जो पुरुष अज्ञानमें आमज्वरमें औषध पान करादेता है ॥ १०३ ॥ वह सोते हुए काले सर्पको हाथसे छूताहै । - ज्वरक्षीणस्य न हितं घमनं च विरेचनम् ॥ १०४ ।।
कामं तु पयसा तस्य निरूहैवा हरेन्मलान् ।। और अरकरके क्षीणपुरुषको वमन और विरेचन करवाना हित नहीं है ॥ १०४ ॥ तिसके मलको दूधसे व निरूहबस्तिकर्म करके यथेच्छ गिरवावे ॥
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