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चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । (४६३) करेला ककोई कच्ची मूली पित्तपापडेका शाक देना हित है ।।७४॥ और बैंगन नींबके पुष्प परवलके पत्ते और अत्यंतहलके मांस और जांगल देशके जीवोंका रस ये भोजनमें हित हैं ॥ ७९ ॥ और कटेहली फालसा अरणी दाख आंवला अनारदाना करके सिद्ध कियेहुये रस अथवा पीपल झूठ धनियां जीरा सेंधानमक करके सिद्ध कियेहुये रस हित हैं ॥७६॥ और विशेषकार कृता अर्थात् अनारदाना सूठ जीरेसे मिली हुई अथवा अकृता अर्थात् इन्होंसे रहित पेयाको मिसरी और शहदके संग युक्त कारकै देवै ॥
अनम्लतक्रसिद्धानि रुच्यानि व्यञ्जनानि च ॥७७॥ अच्छान्यनलसम्पन्नान्यऽनुपानेऽपि योजयेत् ॥ तानि कथितशीतं च वारि मद्यं च सात्म्यतः ॥ ७८॥
और मीठे तक्रमें सिद्ध किये हुए और रुचिमुवाफिक व्यंजन देने चाहिये ॥ ७७ ॥ और कोमलरूप और अग्निकरके सिद्धकियेहुये तक अनुपानमें भोजन करने चाहिये और काथ बनाके शीतल कियाहुआ जल और मदिरा ये समान हैं, इस कारण इन्होंकोभी अनुपानमें युक्तकरें ॥७॥
सज्वरं ज्वरमुक्तं वा दिनान्ते भोजयेल्लघु ॥
श्लेष्मक्षयविवृद्धोष्मा बलवाननलस्तदा ॥ ७९ ॥ और ज्वरसे सहित पुरुषको अथवा ज्वरसे रहित पुरुषको दिनके अंतमें हलका भोजन करावै, क्योंकि तिगसमय कफका क्षय और उष्णकी वृद्धि होतीहै ॥ ७९ ॥
यथोचितेऽथ वा काले देशसात्म्यानुरोधतः ॥
प्रागल्पवह्निभुञ्जानो न ह्यजीर्णेन पीड्यते ॥ ८०॥ अथवा यथोचित समयमें देश और आत्मा अर्थात् आहारकालके अवरोध अर्थात् अनुसार पहिले अल्पजठराग्निवाला पुरुष भोजन करता हुआ अजीर्णकरके पीडित नहीं होता है । ८०॥
कषायपानपथ्यान्नैर्दशाह इति लधिते ॥सर्पिर्दद्यात्कफे मन्दे वातपित्तोत्तरे ज्वरे ॥८१॥ पक्केषु दोषेष्वमृतं तद्विषोपममन्यथा ॥ दशाहे स्यादतीतेऽपि ज्वरोपद्रववृद्धिकृत् ॥ ८२॥ लङ्घनादिक्रमं तत्र कुर्यादकाफसंक्षयात् ॥
और काथोंका पान पथ्य अन्न करके दशदिन लंधित होजावे तब कफ मंदहोवे. और वातपित्त अधिक होवे तब वृत देना चाहिये ॥ ८१ ॥ क्योंकि वह घत पके हुए देषोंमें दिया हुआ तो अमृत है, और अन्यथा विषके समानहे, और जब दशदिन व्यतीत हो जावे तब दिया हुआ वत ज्वरोके उपद्रवोंकी वृद्धिको करता है ।। ८२ और तहां कफका संक्षय होवे तब तक लंघन आदिक कम करै ।।
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