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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४५४) अष्टाङ्गहृदयेजब वह मल उत्कृष्ट अर्थात् अधिक हो और तिसमें कफ ज्यादे होवे चलायमान हो और वमनकी समान जी मचलताहै थूक आताहो अन्नमें इच्छा न हो और खांसी हो और विधूचिका अर्थात् चभकेसे चलतेहीं ॥४॥ और तत्काल भोजन करनेसे ज्वर उपजा हो आमवाला हो तिसमें विशेषकरके बमनदिवाने के योग्य पुरुषको वमन दिवाना श्रेष्ठ है और इन्होंसे अन्यथा ।। ५ ॥ जो वमन दिवादेव तो श्वास, अतिसार, संमोह, हृद्रोग, विषमज्वरको उत्पन्न करताहै ।। पिप्पलीभिर्युतान्गालान्कलि.मधुकेन वा ॥६॥ उष्णाम्भसा समधुना पिबेत्सलवणेन वा॥पटोलनिंबकर्कोटवेत्रपत्रोदकेन वा ७॥ तर्पणेन रसेनेक्षोर्मयैः कल्पोदितानि वा ॥ वमनानि प्रयुञ्जीत बलकालविभागवित् ॥ ८॥ पीपल मैनफल अथवा इंद्रजव वा मुलहटीसे वमन दिवावै यह एक ॥६॥ समान भाग ले और गरम जल शहद लवण इन्होंकरके अथवा परवल नींब कर्कोट वेत इन्हों पत्तोंमें सिद्धकिये हुये जल करके ॥ ७ ॥ अथवा तर्पण रस करके और ईखके रस तथा मदिराकरके और वमन कल्पमें कहे हुये योगोंकरके बल कालके विभागको जाननेवाला वैद्य वमन दिवावै जहाँ प्रमाण नहीं कहाहै वहाँ बराबर भाग लेना चाहिये ॥ ८ ॥ कृतेऽकृते वा वमने ज्वरी कुयाद्विशोषणम्॥दोषाणां समुदी र्णानां पाचनाय शमाय च ॥९॥आमन भस्मनेवाग्नौ छन्नेनं न विपच्यते ॥ तस्मादादोषपचनाज्ज्वरितानुपवासयेत् ॥१०॥ और वमनके योग्य पुरुषके वमन करे पीछे अथवा अयोग्यके अमन करवाये पीछे वढे हुये दोपोंके शमन और पाचनके अर्थ विशोष अर्थात् जलपानका लंघन करे ॥ ९ ॥ और जैसे राखकर के अग्नि ढकी तैसे आम करके ढकाहुआ अन्न पकता नहीं है, इस कारण जबतक दोष पकै तबतक ज्वरी पुरुषको लंघन करवावै ॥ १० ॥ तुड्वानल्पाल्पमुष्णाम्बु पिबेद्वातकफज्वरे ॥ तत्कर्फ विलयं नीत्वातृष्णामाशु निवर्तयेत् ॥ ११॥ उदीर्य चाग्निं स्रोतांसि वृदूकृत्य विशोधयेत् ॥ लीनपित्तानिलस्वेदशकृन्मूत्रानुलोमनम्॥१२॥ निद्राजाड्यारुचिहरं प्राणानामवलंबनम्॥ विपरीतमतः शीतं दोषसंघातवर्द्धनम् ॥ १३ ॥ और वात कफ ज्वरमें प्यास लगनेपर पुरुष अल्प गरम जल पावै, वह जल कफको दूर करके तृषाकोभी शीघ्रही निवारण करदेताहै ॥११॥ और अग्निको प्रज्वलित कर स्रोतोंको कोमलकर विशोधन करता है और लीन अर्थात् विपरीतहुये पित्त वात स्वेद विष्ठा मूत्रको प्रवर्त करताहै For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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