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( ४३५ )
निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । स्थिते कुष्ठे तोदवैवर्ण्यरूक्षताः ॥३३॥ स्वेदस्वापश्वयथवः शोणिते पिशिते पुनः ॥ पाणिपादाश्रिताः स्फोटाः लेदः सन्धिषु चाधिकम् ॥ ३४॥ | कौण्यं गतिक्षयोऽङ्गानां दलनं स्याच्च मेदसि ॥ नासाभङ्गोऽस्थिमज्जस्थे नेत्ररागः स्वरक्षयः ॥ ३५ ॥ क्षते च कृमयः शुक्रे स्वदारापत्यबाधनम् । यथापूर्वञ्च सर्वाणि स्युलिं ङ्गान्यसुगादिषु ॥ ३६ ॥
कुष्ठों में दोषों की अधिकताको दोषभेदीय में कहे यथायोग्य लिंग कम करके आदेशित करे और सब दोषों की अधिकतावाले कुष्टरोगोंको त्यागे ॥ ३१ ॥ और जो विकृत विज्ञानीय अध्यायमें कहा हुआ और जो हड्डी मज्जा वीर्यमें आश्रयवाला है तिस कुटको त्यागे और मेदमें प्राप्तहुआ कुष्ठ कष्टसाध्य होता है और पित्तके द्वंद्वसे उपजा रक्त और मांसमें प्राप्तहुआ कुछभी कष्टसाध्य होता है ॥ ३२ ॥ कफ और वातसे संयुक्त और त्वचा में स्थित होनेवाला और एकदोषकी अधिकता से संयुक्त कुष्ठ सुखसाध्य कहा है और तहां त्वचामें स्थितहुए कुष्टमें चमका, वर्णका बदलना, रूखापन उपजते हैं ॥ ३३ ॥ रक्तगत कुष्टमें पसीना, स्वाप, शोजा उपजते हैं, और मांसगत कुष्ठ हाथ पैर में आश्रित हुए फोडे संधियों में अतिशयकर के क्वेद उपजते हैं ॥ ३४ ॥ और मेदमें प्राप्त हुए कुछ में गतिका नाश, अंगोंका छेद उपजता है हड्डी और मज्जामें प्राप्तहुये कुष्ठ में नासिकाका भंग और नेत्रों में ललाई और स्वरका क्षय उपजता है || ३५ || और घाव कीडे उपजते हैं और वीर्य्यगत कुष्टमें रोगीकी स्त्री और संतानको पीडा होती है, और रक्तआदि धातुओंमें ये सब लक्षयथापूर्व अर्थात् पूर्वपूर्वके अनुसार होते हैं ॥ ३६ ॥ कुष्ठैकसम्भवं श्वित्रं किलासं दारुणञ्च तत् ॥ निर्दिष्टमपरि स्त्रावि त्रिधातूद्भवसंश्रयम् ॥ ३७ ॥ वाताक्षारुणं पित्तात्तानं कमलपत्रवत् ॥ सदाहं रोमविध्वंसि कफाच्छ्रेतं धनं गुरु ॥३८॥ सकण्डु च क्रमाद्रक्तमांसमेदःसु चादिशेत् ॥ वर्णेनैवेद्यगुभयं कृच्छ्रं तच्चोत्तरोत्तरम् ॥३९॥ अशुक्लरोमबहुलमसंसृष्टं मिथो नवम् ॥ अनग्निदग्धजं साध्यं श्वित्रं वर्ज्यमतोऽन्यथा ॥४०॥ गुह्यपाणितलोष्ठेषु जातमप्यचिरन्तनम् ॥ स्पर्शेकाहारशय्या दिसेवनात्प्रायशो गदाः ॥४१॥ सर्वे सञ्चारिणो नेत्रत्वग्विकारा विशेषतः ॥
कुष्टों के समान उत्पत्तिवाला श्वित्र होता है और यही दारुणरूप किलास कहाता है, और यह झिरता नहीं है, वात आदि तीनों दोष रक्त आदिमें तीनों धातुमें यथाक्रमसे उत्पत्ति संश्रयवाला है ३७ ॥
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