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निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । ( ४३३) पीताभपय्र्यन्तं मण्डलं परिमण्डलम् ॥१७॥ सकण्डपिटिका श्यावा लसीकाढ्या विचर्चिका ॥ परुषं तनु रक्तान्तमन्तः श्यावं समुन्नतम् ॥१८॥ सतोददाहरुक्क्लेदं कर्कशैः पिटिकैश्चितम् ॥ ऋक्षजिह्वाकृति प्रोक्तमृक्षजिह्वं बहुक्रिमि ॥ १९ ॥ हस्तिचख
स्पर्श चम्मैकाख्यं महाश्रयम् ॥ अस्वेदं मत्स्यशकलसन्निभं काला और लाल और कपालके समान कांतिवाला और रूखा और शयनको प्राप्त हुआ और करडा और हीन ॥ १३ ॥ और सब तर्फको विस्तृत हुआ दूषित हुये रोमोंकरके व्याप्त और चभकेसे संयुक्त अल्प खाजवाला शीघ्र फैलनेवाला कापालकुष्ठ होता है ॥ १४ ॥ पकेहुए गूलर और तांबे के समान त्वचा और रोमोंवाला सफेद नाडियों करके व्याप्त बहनेवाला बहुतसे क्केदोंवाला लाल दाह तथा शूलकी अधिकता से संयुक्त ॥ १५ ॥ शीघ्र उठनेवाला अवदरण रूप कृमियोंवाला उदुंबरकुष्ट जानना और स्थिर और आलस्यरूप भारी, चिकना, श्वेत तथा रक्तवर्णवाला और शीघ्र नहीं फैलनेवाला || १६ || और आपस में सक्तहुआ और ऊंचा और बहुतसी खाज स्त्राव कीडोंसे संयुक्त कोमल और पीली कांतिवाला और मंडलवाला मंडलकुष्ट होता है ॥ १७ ॥ खाजसे सहित और धूम्रवर्णवाला और लसिका से संयुक्त फुनसियोंसे संयुक्त विचर्चिकाकुष्ट होता है और कठोर मिहीन और अंतमें रक्त और भीतरको धूम्रवर्णवाला और अच्छी तरह से ऊंचा ॥ १८ ॥ और चमका, दाह, उक्लेदसे संयुक्त कठोररूप फोडों से व्याप्त और रीछकी जीभंकी समान आकृतिवाला बहुतसे कांडोंसे संयुक्त ऋक्षजिह्व कुष्ठ होता है। ॥ १९ ॥ हाथी के चर्मके समान करडा स्पर्शवाला चर्मकुष्ट होता है ॥
किटिभं पुनः ॥ २० ॥ रूक्षं किणखरस्पर्श कण्डूमत्परुषासितम् ॥ सिध्मं रूक्षं बहिः स्निग्धमन्तर्दृष्टं रजः किरेत् ॥ २१॥ श्लक्ष्णस्पर्श तनु श्वेततानं दौग्धिकपुष्पवत् ॥ प्रायेण चोर्ध्व काये स्याद्वण्डेः कण्डूयुतैश्चितम्॥२२॥ रक्तैरलसकं पाणिपाददाय विपादिकाः ॥ तीव्रात्यों मन्दकण्डुश्च सरागपिटिका चिताः॥ २३॥ दीर्घप्रताना दूर्वावदत्तसी कुसुमच्छविः ॥ उत्सन्नमण्डला दः कण्डूमत्यनुषङ्गिणी ॥ २४ ॥ स्थूलमूलं सदाहार्ति रक्तश्यावं बहुव्रणम् ॥ शतारुः क्लेदजंत्वाढ्यं प्रायशः पूर्वजन्म च ॥२५॥ रक्तान्तमन्तरा पाण्डुकण्डूदाहरुजान्वितम् ॥ सोत्सेध माचितं रक्तैः पद्मपत्रमिवांशुभिः ॥ २६ ॥ घनभूरिलसीका सृप्रायमाशुविभेदि च ॥ पुण्डरीकं तनुत्वग्भिश्चितं स्फोटैः सि
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