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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३५९) ग्रहादौ सन्निपातस्य भयादौ मरुतस्त्रये ॥ कौपः कोपेऽपि पित्तस्य यौ तु शापाभिचारजौ॥ ४३ ॥ सन्निपातज्वरौ घोरौ तावसह्यतमौ मतौ ॥ तत्राभिचारिकैर्मन्त्रैर्हृयमानस्य तप्यते ॥४४॥ पूर्वं चेतस्ततो देहस्ततो विस्फोटतृभ्रमैः ॥ सदाह मूच्छेप॑स्तस्य प्रत्यहं वर्धते ज्वरः॥ ४५ ॥ इति ज्वरोऽष्टधा दृष्टः समासाद्विविधस्तु सः ॥ शारीरो मानसः सौम्यस्तीक्ष्णोऽन्तर्बहिराश्रयः ॥ ४६॥ प्राकृतौ वैकृतः साध्योऽसाध्यः सामो निरामकः ॥ ग्रहावेश, औषधी, विष इन्होंसे उपजे ज्वरमें सन्निपातका कोप होता है और भय शोक काम इन्होंसे उपजे ज्वरमें वायुका कोप होता है और क्रोधसे उपजे ज्वरमें पित्तका और वातका कोष होता है और जो शापसे और अभिचारसे उपजे ॥ ४३ ॥ घोररूप जो दो सन्निपातज्जर हैं सो मुनिजनोंने सहनेको अतिशयकरके अत्यंत अशक्य माने हैं और तिन्होंमें अथर्वणवेदके कहेहुये आभिचारिक मंत्रोंकरके हूयमान मनुष्यके ॥ ४४ ॥ प्रथम चित्तमें दुश्व उपजता है पीछे देह संतापित होता है पीछे विस्फोट, तृषा, भ्रम, दाह, मूर्छा इन्होंकरके त्रस्तहुये तिस मनुष्यके नित्यप्रति ज्वर बढता जाता है ॥ ४५ ॥ ऐसे मुनिजनोंने ज्वर आठप्रकारका देखा है परंतु वही ज्वर संक्षेपसे दो प्रकारकाभी है जैसे एक शारीर दूसरा मानस और एक सौम्य दूसरा तीक्ष्ण और एक अंतराश्रय दूसरा बहिराश्रय ॥ ४६ ॥ और एक प्राकृत, दूसरा वैकृत और एक साध्य दूसरा असाध्य और एक साम दूसरा निराम है ॥ पूर्व शरीरे शारीरे तापो मनसि मानसे ॥ ४७॥ पवने योग वाहित्वाच्छीतं श्लेष्मयुते भवेत् ॥दाहः पित्तयुते मिश्रं मिश्रेऽन्तःसंश्रये पुनः॥४८॥ज्वरेऽधिकविकाराःस्युरन्तःक्षोभोमलग्रहः॥ और शारीरज्वरमें प्रथम शरीरमें ताप होता है, मानसज्वरमें प्रथम मनमें ताप अर्थात् दुःख होता है ॥ ४७ ॥ और वायुको योगवाहिपनेसे कफ युक्तमें शीत उपजता है और पित्त युक्तमें दाह उपजता है और पित्तकफसे संयुक्त वातमें बारंबार दाह और बारंबार शीत उपजता है और अंतरीश्रयं अर्थात् शरीरके भीतर रहनेवाले ज्वरमें ॥ ४८॥ शरीरके भीतरही बहुतसे विकार उपजते हैं अर्थात् तीवदाह और मूत्र. विष्ठा आदि मलोंका बंधना उपजता है ।। बहिरेव बाहिर्वेगे तापोऽपि च सुसाध्यता ॥४९॥ वर्षांशरद्वसन्तेषु वातायैः प्राकृतः क्रमात् ॥ वैकृतोऽन्यः स दुःसाध्यः प्रायश्च प्राकृतोऽनिलात् ॥ ५० ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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