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शारीरस्थान भाषाटीकासमेतम् ।
( ३२७ )
और जिस मनुष्यका हीन और दीन और व्यक्तपनेसे रहित और गद्गद ऐसा स्वर होजावे ||३८|| और जो कारण के विनाही कहने की इच्छा करनेवाला मनुष्य मोहको प्राप्त होवे वह मनुष्य नहीं जविता, और स्वरका दुर्बलपना, बल और वर्णकी हानी || ३९ || और निमित्त विनाही रोगकी वृद्धि इन्हों को देखके मृत्युको कहै और जो हीनस्वरकरके मैं मरूँगा ऐसे आपके मरने को कहै ऐसे रोगीको ॥ ४० ॥ और तिस रोगीके शब्दको सुननेवाले अन्य मनुष्यकोभी वैद्य दूरसे त्यागे और संस्थान करके और प्रमाणकरके और वर्णकरके और कांतिकरके ॥ ४१ ॥ जिस मनुष्यकी छाया अन्यभावको प्राप्त होजावे वह मनुष्य स्वप्नमेंभी मरा हुआ है जागनेकी तो क्यावात है अर्थात् टेढीछाया सीधी और सीधीकी टेढी दीखै तो अरिष्ट जानना और छायामें वर्णविकार होजाय तौ अरिष्ट है |
आतपादर्शतोयादौ या संस्थानप्रमाणतः ॥ ४२ ॥ छायाङ्गात्सम्भवत्युक्ता प्रतिच्छायेति सा पुनः ॥ वर्णप्रभाश्रया या तु सा छायैव शरीरगा ॥ ४३ ॥ भवेद्यस्य प्रतिच्छाया च्छिन्ना भिन्नाधिकाकुला || विशिरा द्विशिरा जिल्ह्मा विकृता यदि वाऽन्यथा ॥४४॥ तं समाप्तायुषं विद्यान्न चेह्रक्ष्यनिमित्तजा ॥ प्रतिच्छायामयी यस्य न चाक्ष्णीक्ष्येत कन्यका ॥ ४५ ॥
और बाम, सीसा,पानी,इनआदिमें शरीरका संस्थान और प्रमाणके अनुरूप ||४२ || प्रतिर्विवरूप छाया अंगसे उत्पन्न होती है तिसको प्रतिच्छाया कहते हैं; फिर वर्णप्रभा है आश्रय जिसका वह छाया शरीरमें प्राप्त होनेवाली है ||४३|| जिस मनुष्यकी दोप्रकारवाली और कछुक छिद्रवाली और शिरसे रहित और दो शिरोंवाली और कुटिल और विकृत और अन्यभावको प्राप्त हुई॥ ४४ ॥ ऐसी प्रतिच्छाया दखि तिस मनुष्यको समाप्तआयुवाला कहो परंतु लक्षके निमित्तसे उपजी अर्थात् किसी कारणसे उत्पन्न हुई ऐसी प्रतिच्छाया नहीं होवे और आंखोंमें दीखनेवाला प्रतिबिंबरूप माणसिया: आखोंमें नहीं देखि तिस मनुष्यकी आयु समाप्तही जानो ॥ ४५ ॥
खादीनां पञ्च पञ्चानां छाया विविधलक्षणाः ॥ नाभसी निर्मलानीला सस्नेहा सप्रभेव च ॥ ४६ ॥ वाताद्रजोऽरुणा श्यावा भस्मरूक्षा हतप्रभा ॥ विशुद्धरक्ता त्वाग्नेयी दीप्ताभा दर्शनप्रिया ॥ ४७ ॥ शुद्धवैदूर्यविमला सुस्निग्धा तोयजा सुखा ॥ स्थिरा सिग्धा घना शुद्धा श्यामा श्वेता च anferaft 11 8 11
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