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शरीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३२३) होवे और जिसका नीचेका ओष्ठ अत्यन्त नीचेको प्राप्त होवे और ऊपरका ओष्ठ अत्यन्त ऊपरको प्राप्त होवे और पकेहुए जामुनके फलके समान कांतिवाले दोनों ओष्ठ होजावें ॥ ९ ॥ शर्कराओंसे व्याप्त और वर्णमें धूमा तथा तांबाके समान उत्पन्न हुये पुष्पोंवाले और उत्पन्न हुये कीचड वाले दंत कारणके विनाही पतित होजावें और टेढी तथा फैलनेवाली और सफेद ॥ १० ॥ और सूखी और भारी और धूम्रवर्णकी और रसको नहीं जाननेवाली और कांटोंसे व्याप्त जीभ होवे ।।
शिरः शिरोधरा वोढुं पृष्ठं वा भारमात्मनः ॥ ११ ॥ हनू वा पिण्डमास्यस्थं शक्नुवन्ति न यस्य च॥ यस्यानिमित्तमंगानि गुरूण्यतिलघूनि वा ॥१२॥ विषदोषाद्विना यस्य खेभ्यो रक्तं प्रवर्तते ॥ उत्सितं मेहनं यस्य वृषणावतिनिःसृतौ ॥ १३ ॥ अतोऽन्यथा वा यस्य स्यात्सर्वे ते कालचोदिताः॥ यस्याऽपूर्वाः शिरालेखा वालेन्द्राकृतयोऽपि वा ॥ १४ ॥ ललाटे वस्तिशीर्षे वा षण्मासान्न स जीवति ॥ पद्मिनीपत्रवत्तोयं शरीरे यस्य देहिनः॥१५॥ प्लवते प्लवमानस्य षण्मासं तस्य जीवितम् ॥
और जिस मनुष्पकी प्रीवा शिरको नहीं सहसके और जिसकी पीठ अपने भारको नहीं सहसके ॥ ११ ॥ और जिसकी टोडी मुखमें स्थित हुये पिंडको नहीं सहसके और जिसके कारणके विना भारी और अत्यन्त हलके अंग होजावें ॥ १२॥ और जिसके विषके दोषके बिना छिद्रोंसे रक्त निकसे और जिसका ऊपरको प्राप्त हुआ लिंग होजावे और जिसके अत्यन्त लंबे दोनों अंडकोश होजावें ॥ १३ ॥ ऐसे लक्षणोंवाले सब मनुष्य मृत्युकरके अंगीकृत होते हैं जिस स्वस्थ मनुष्यके नवीन अथवा वालकचंद्रमाके समान आकृतिवाली नाडियोंकी पंक्तियां ॥ १४ ॥ मस्तकमें अथवा
बस्तिशिरमें दखें वह मनुष्य छ: महीनोंतक नहीं जीवता है और जिस मनुष्यके शरीरमें कमलिनी • के पत्रकी तरह ॥ १५ ॥ स्नानकरनेके वख्त पानी झिरै अर्थात् जैसे कमलके पत्रपर जल नहीं ठहरता ऐसे शरीरपर नहीं ठहरे तिसका जीवना छः महीनोंतक है ।।
हरिताभाः शिरा यस्य रोमकूपाश्च संवृताः॥ १६ ॥ सोम्लाभिलाषी पुरुषापित्तान्मरणमनुते ॥ यस्य गोमयचूर्णाभं चूर्ण मूर्ध्नि मुखेऽपि वा ॥१७॥ सस्नेहं मूर्ति धूमो वा मासान्तं तस्य जीवितम् ॥ मूर्ध्नि भ्रुवोर्वा कुर्वन्ति सीमन्तावर्त्तका नवाः ॥ १८ ॥ मृत्युं स्वस्थस्य षड्रात्रात्रिरात्रादातुरस्य तु ॥
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