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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३१३.) जंघोर्वोः संगमे जानु खञ्जता. तत्र जीवतः ॥ जानुनत्यंगूलादूर्द्धमण्यूरुस्तम्भशोफकृत् ॥६ ॥ उप॒रुमध्ये तद्वेधात्सक्थिशोषोऽस्रसंक्षयात् ॥ ऊरुमूले लोहिताख्यं हन्ति पक्षमसृक्क्षयात् ॥७॥ मुष्कवंक्षणयोर्मध्ये विटपं षण्डताकरम् ॥ इति सक्थ्नोस्तथा बाह्वोर्मणिबन्धोऽत्र गुल्फवत् ॥८॥ कूपरं जानुवत्कोण्यं तयोर्विटपवत्पुनः ॥ कक्षाक्षमध्ये कक्षाधृक्कुणित्वं तत्र जायते ॥ ९॥ पैरके तलुएके मध्यप्रदेशमें चारोंतर्फ मध्यम अंगुलीतक ॥ २ ॥ तलहृत्मर्म है तहां चोट लगै तो पीडाकरके मनुष्य मरजाता है, अंगठा और अंगलीके मध्यमें क्षिप्रमर्म है तहां चोट लगे तो आक्षेपवातरोग उपजके मृत्यु होती है ॥ ३ ॥ तिस क्षिप्रमर्मके ऊपर दो अंगुलको छोड कूर्चमर्म है तहां चोट लगै तो पैरका भ्रमण और कंप उपजता है और टकनोंकी संधिके नीचे कूर्चशिरमर्म है तहां चोट लगै तो शोजा और शूल उपजता है ॥ ४ ॥ जांच और पैरकी संधिमें गुल्ममर्म है तहां चोट लगै तो शूल, स्तंभ, मंदता उपजते हैं और जांघोंके मध्यमें इंद्रबस्तिमर्म है तहां चोट लगे तो रक्तके नाश होनेसे मनुष्य मरजाता है ।। ५ ॥ जांघ और ऊरूकी संधिमें जानुमर्म है तहां चोट लगै तो मनुष्य मरजाता है, अथवा जीवे तो लंगडा होजाता है, और जानुकी संधिके तीन अंगुल ऊपर अणीमर्म हैं तहां चोट लगै तो ऊरूस्तंभ और शोजा उपजता है ॥ ६ ॥ और ऊरूके मध्यमें उवीमर्म है. तहां चोट लगै तो रक्तके नाशसे शक्तिशोष उपजता है, ऊरूके मूलमें लोहिताख्य मर्म है तहां चोट लगे तो रक्तके क्षयसे शरीरके एकपक्षका नाश होता है ॥ ७ ॥ संडसंधियोंके मध्यमें विटपमर्म है तहां चोट लगै तो नपुंसकता उपजती है, इस प्रकारकरके दोनों सक्थियोंमें और दोनों बाहुओंमें चवालीस मर्म हैं और बाहूके मों में गुल्कके तुल्य मणिबंधमर्म है ॥ ८॥ और जानुके तुल्य कर्पमर्म है तिन दोनों मोमें चोट लगै तो टूटा मनुष्य होजाता है, काख और अक्षके मध्यमें विटपमर्मके तुल्य कक्षाचकमर्म है, तहां चोट लगै तो बाहू, हाथ, अंगुलीका कुबडापन होजाता है ॥ ९ ॥ स्थूलान्त्रबद्धः सद्योनो विड़वातवमनो गुदः ॥ स्थूलांत्र सूक्ष्मांत्र इनभेदोंसे अंत्र दो प्रकारका है, सो स्थूल अत्रोंसे बंधाहुआ विष्ठा और अधोआतको उगलनेवाला गुदमर्म है, तहां चोट लगे तो मनुष्य शीघ्र मरजाता है ॥ मूत्राशयो धनुर्वको वस्तिरल्पास्रमांसगः ॥ १० ॥ एकोधो वदनो मध्ये कट्याः सद्यो निहन्त्यसून् ॥ ऋतेऽश्मरीत्रणाद्विद्धस्तत्राप्युभयतश्च सः ॥ ११ ॥ मूत्रस्त्राव्येकतो भिन्नो वणो रोहेच्च यत्नतः॥ देहामपक्वस्थानानांमध्येसर्वशिराश्रयः For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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