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शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२९३) तत्र खात्खानि देहऽस्मिन्छोत्रं शब्दो विविक्तता ॥
वातात्स्पर्शत्वगुच्छासा वढेईग्रूपपक्तयः॥३॥ . तहाँ इस देहमें आकाशसे सब छिद्र कान इंद्रिय, शब्द और शून्यता ये उपजते हैं और वायुसे स्पर्श त्वचा और प्राण उपजते हैं, और आग्निसे नेत्र, रूप, पाक उपनते हैं ॥ ३ ॥
आप्या जिह्वारसक्दा घ्राणगन्धास्थि पार्थिवम् ॥
मृद्वत्र मातृज रक्तमांसमजगुदादिकम् ॥ ४॥ जलसे जीभ इंद्रिय रस और क्लेद उपजते हैं और पृथ्वीसे नासिका इंद्रिय गंध अस्थिभाग उपजते हैं और इस शरीरमें रक्त मांस मज्जा गुदा नाभी हृदय यकृत् प्लीहा आशय ये कोमलस्थान मातृज अर्थात् माताके सत्वकी अधिकतासे उपजत हैं ।। ४ ॥
पैतृकं तु स्थिरं शुक्रं धमन्यस्थिकचादिकम् ॥
चैतनं चित्तमक्षाणि नानायोनिषु जन्म च ॥५॥ वीर्य, नाडी, नस, हड्डी, रोम ये सब स्थिररूप पैतृक अर्थात् पिताके सत्वकी अधिकतासे उपजते हैं और आत्मासे यह चित्त और सब इंद्रियें उपजती हैं और नानाप्रकारकी योनियोंमें जन्मभी आत्माहीसे उपजता है ॥ ५ ॥
सात्म्यजं त्वायुरारोग्यमनालस्यं प्रभा बलम् ॥
रस वपुषो जन्म वृत्तिद्विरलोलता ॥ ६ ॥ आयु, आरोग्य उत्साह, कांति, बल: आदि सब सात्म्यज कहाते हैं, सात्म्य तीन प्रकारका है व्याधिसात्म्य, देशसात्म्य, देहसात्म्य, परन्तु देहके प्रस्ताव होनेसे यहां व्याधिसात्म्यका ग्रहण नहीं है और शरीरका जन्म वृत्ति वृद्धि, और चंचलताका अभाव ये सब रससे उपजते हैं ॥६॥
सात्त्विकं शौचमास्तिक्यं शुक्लधर्मरुचितिः॥
राजसं बहुभाषित्वं मानक्रुदम्भमत्सराः॥७॥ शौच अर्थात् शरीर वाणी मनकी शुद्धि और आस्तिक्य अर्थात् ईश्वरआदिको मानना, और कपटसे रहित, धर्ममें रुचि, अच्छी बुद्धि ये सब सत्वगुणकी अधिकतासे जानने और बहुत बोलना, मान, क्रोध, कपट मत्सरता ये सब रजोगुणकी अधिकतासे होते हैं ॥ ७ ॥
तामसं भयमज्ञानं निद्राऽऽलस्यं विषादिता ॥ इति भूतमयो देहस्तत्र सप्त त्वचोऽसृजः॥८॥ पच्यमानात्प्रजायन्ते क्षीरात्सन्तानिका इव ॥
धात्वाशयान्तरक्लेदो विपक्कः स्वं स्वमूष्मणा ॥९॥ भय, अज्ञान, नींद, आलस्य, विषादपना ये सब तामस अर्थात् तमोगुणसे उपजते हैं ऐसे पंचभूतोंका यह देह है तहां पच्यमानहुये रक्तसे सातों त्वचा अर्थात् खाल उपजती हैं, जैसे दूधसे
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