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(२८६)
अष्टाङ्गहृदयेतैरेव च सुतृप्तायाः क्षोभणं यानवाहनैः॥
लीनाख्ये निस्फुरे श्येनगोमत्स्योत्क्रोशवहिजाः॥१८॥ तिन्होंकरके तृप्त हुई गर्भिणीको रथ और हाथीआदिमें आरोपित करके वेगसे चलावै और फुरनेसे रहित और लीन अर्थात् लय होनेवाला ऐसा गर्भ होजावै तो शिकरा, मगर, मच्छ, पेंचापक्षी, मोर ॥ १८ ॥
रसा बहुघृता देया माषमूलकजा अपि ॥
बालबिल्वं तिलान्माषान्सक्तूंश्च पयसा पिबेत् ॥ १९॥ इनआदिके रसोंमें बहुतसा घृत मिला देना; तथा उडद तथा मूलीके रसमें घृत मिलाके देना, अथवा कच्ची बेलगिरी, तिल, उडद, सत्तूको दूधके संग पीवै ॥ १९ ॥
समेद्यमांसं सधु वा कट्यभ्यङ्गश्च शीलयेत् ॥
हर्षयेत्सततं चैनामेवं गर्भः प्रवर्द्धते ॥२०॥ तथा मंद मांसके संग मदिराको पीवै अथवा कटीपे मालिशको सेवै,और निरंतर इस गर्भवतीको आनंदित करे ऐसे गर्भ बढजाता है ॥ २० ॥
पुष्टोऽन्यथा वर्षगणैः कृच्छाजायेत नैव वा॥
उदावर्त्तन्तु गर्भिण्याः स्नेहैराशुतरां जयेत् ॥ २१॥ वर्षोंके समूहकरके कष्टसे वह गर्भ योनिभे निकसै अथवा कुक्षिमेंही सदा स्थित रहै और गर्भिणी स्त्रीके उदावर्तरोग उपजै तो चार प्रकारके स्नेहोंकरके वैद्य शीघ्रही दूर करै ॥ २१ ॥
योग्यैश्च बस्तिभिर्हन्यात्सगी सहि गर्भिणीम् ॥
गर्भेऽतिदोषोपचयादपथ्यैर्दैवतोऽपि वा ॥२२॥ तथा योग्यरूप अनुवासनबस्तियोंकरके तिस रोगको दूर करै, क्योंकि वह उदावर्तरोग गर्भ करके सहित तिस गर्भिणीको नाशता है, और कठोर वातादिदोषोंके संचयसे और अपथ्योंसे अथवा दैवसे पेटके भीतर गर्भको मृत्यु होजावै तो ये लक्षण होते हैं ॥ २२ ॥
मृतेऽन्तरुदरं शीतं स्तब्धे ध्मातं भृशव्यथम् ॥
गर्भास्पन्दो भ्रमस्तृष्णा कृच्छ्रादुच्छ्सनं कमः २३॥ शीतल और स्तब्ध अर्थात् कठोर और अफरासे संयुक्त पेट होजाता है, और गर्भका नहीं फुरना, भ्रम, तृषा, कष्टसे श्वास, उपताप, ॥ २३ ॥
अरतिः स्रस्तनेत्रत्वमावीनामसमुद्भवः॥
तस्याः कोष्णाम्बुसिक्तायाः पिष्ट्वा योनि प्रलेपयेत् ॥२४॥ वेचैनी, स्थानसे भ्रष्ट हुये नेत्र, प्रसवकालसंबंधी शूल नहीं होते हैं, तिस स्त्रीको अल्पगर्म किये पानासे सेचित कर पीछे अगले श्लोकमें कहेहुये औषधोंको पीस योनिपै लेप करै ॥ २४ ॥
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