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(२७६)
अष्टाङ्गहृदयेगर्भस्य नाभौ मातुश्च हृदि नाडी निबध्यते ॥
यया स पुष्टिमाप्नोति केदार इव कुल्यया ॥ ५८॥ एकही नाडी गर्भके नाभीमें और माताके हृदयमें बँधीहुई है जिसकरके वह गर्भ पुष्टिको प्राप्त होताहै जैसे पानीको बहानेवाली नालीकरके खेतमें स्थितहुआ चावल आदि अन्न,यह गर्भ रससेही पुष्ट होताहै जो नाडियोंके द्वारा प्राप्त होताहै धमनी नाडी इसको वहनकरती है साक्षात् अन्न पानका प्रवेश नहीं होता ऐसा होता तौ मूत्रपुरीषादिकी प्राप्ति होती ॥ ५८ ॥
चतुर्थे व्यक्तताङ्गानां चेतनायाश्च पञ्चमे ॥
षष्ठे स्नायुशिरारोमबलवर्णनखत्वचाम् ॥ ५९॥ चौथे महीनेमें गर्भके सब अंगों की प्रकटता होती है और पांचवें महीनेमें बुद्धिकी प्रकटता होती है और छठे महनिमें नस, नाडी, रोम, बल, वर्ण, नख, त्वचा इन्होंकी प्रकटता होतीहै।।५९॥
सर्वैः सर्वाङ्गसम्पूर्णो भावैः पुष्यति सप्तमे ॥ गर्भेणोत्पीडिता दोषास्तस्मिन्हृदयमाश्रिताः॥
कण्डूं विदाहं कुर्वन्ति गर्भिण्याः किकिसानि च ॥६०॥ सातवें महीनेमें सब भावों और सब अंगोंकरके संपूर्णरूप गर्भ पुष्ट होता है यह समयभी गर्भके निकलनेका है बहुधा सात महीनेका बालक उत्पन्न होकर बराबर जीता है। परन्तु अकालमें प्रसव होना अच्छा नहीं और गर्भकरके उत्पीडित किये दोष तिसकालमें हृदयको आश्रित हुये गर्भिणीके खाज, दाह और हाथ, पैर, कन्धा इन्होंके मूलोंमें अनेक प्रकारका संताप तथा दाह इन्होंको करते हैं ॥६॥
नवनीतं हितं तत्र कोलाम्बुमधुरौषधैः॥
सिद्धमल्पपटुस्नेहं लघु स्वादु च भोजनम् ॥ ६१॥ तिन खाज आदियोंमें बडबेरीका रस और मधुर औषधोंकरके सिद्ध नौनी घृत, और अल्परूप .. नमक तथा स्नेहसे संयुक्त हलका और स्वादु भोजन देना योग्यहै ॥ ६१ ॥
चन्दनोशीरकल्केन लिम्पेदूरुस्तनोदरम् ॥
श्रेष्ठया चैणहारणशशशोणितयुक्तया ॥ ६२ ॥ चंदन और खसके कल्ककरके जांघ, स्तन पेटको लेपितकरै, अथवा एणसंज्ञक मृग, हरिण, शशाके रक्तोंकरके युक्त त्रिफलाकरकेभी पूर्वोक्त अंगोंको लेपित करै ।। ६२ ।।
अश्वघ्नपत्रसिद्धेन तैलेनाभ्यज्य मर्दयेत् ॥
पटोलनिम्बमञ्जिष्ठासुरसैः सेचयेत्पुनः॥ ६३ ॥ (लो ६१) कोलाम्वुके कथनसे कई वैद्यपंचकोलका जल ग्रहणकरतेहैं क्योंकि पंचकोल सूतिका की व्याधियोंमें हितहै।
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