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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (२७४ ) अष्टाङ्गहृदये उपचारः प्रियहितैर्भर्त्रा भृत्यैश्च गर्भधृक् ॥ नवनीतघृतक्षीरैः सदा चैनामुपाचरेत् ॥ ४५ ॥ प्रिय और हितसंयुक्त जो उपचार पति और नौकरों करके किया जाता है वह गर्भकी स्थितिको करता है और इस स्त्रीको नौनि घृत और दूधआदिकरके सबकालमें उपचारित करावे ॥ ४५ ॥ अतिव्यवायमायासं भारं प्रावरणं गुरु || .अकालजागरस्वप्नकठिनोत्कटकासनम् ॥ ४६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिमैथुन, परिश्रम, भार, भारीआच्छादन, अकालमें जागना और शयन, कठिन और उत्कट आसन || ४६ ॥ शोकको भयोद्वेगवेगश्रद्धाविधारणम् ॥ उपवासाध्यतीक्ष्णोष्ण गुरुविष्टम्भिभोजनम् ॥ ४७ ॥ शोक, क्रोध, भय, उद्वेग, मूत्रआदि वेगों की शंकाको धारणा, व्रत, मार्गगमन और तीक्ष्ण, गरम, भारी, विष्टंभी भोजन ॥ ४७ ॥ रक्तं निवसनं श्वभ्रकूपेक्षां मद्यमामिषम् ॥ उत्तानशयनं यच स्त्रियो नेच्छन्ति तत्यजेत् ॥ ४८ ॥ लाल वस्त्र, छिद्र और कूपका देखना, मद्य और मांसका सेवन सीधा शयन करना, जिनजिन कार्योंको स्त्री नहीं इच्छित करती हैं ये सब ॥ ४८॥ तथा रक्तस्रुतिं शुद्धिं वस्तिमामासतोऽष्टमात् ॥ एभिर्गर्भः स्त्रवेदामः कुक्षौ शुष्येन्म्रियेत वा ॥ ४९ ॥ फस्तका खुलावना, वमन विरेचन, बस्तिकर्म इन्होंको गर्भिणी स्त्री गर्भसमयसे लगायत आठमें महनेतक त्याग देवै इन्होंकरके कच्चाही गर्भ झिरजाता है अथवा कृखमें सुख जाता है तथा मर जाता है ॥ ४९ ॥ वातलैश्च भवेद्गर्भः कुब्जान्धजडवामनः ॥ पित्तलैः खलतिः पिङ्गः श्वित्री पाण्डुः कफात्मभिः ॥ ५० ॥ वातको उपजानेवाले द्रव्योंके सेवनेसे कुबडा, अंधा, जड, वामना गर्भ उपजता है; पित्तको उपजानेवाले द्रव्योंके सेवनेसे गंजा तथा पिंगवर्णवाला गर्भ उपजता है, और कफको उपजानेवाले द्रव्योंके सेवनेसे श्वित्रकुष्ठवाला और पांडु गर्भ उपजता है ॥ ५० ॥ व्याधींश्चास्यामृदुसुखैरतीक्ष्णैरौषधैर्जयेत् ॥ द्वितीये मासि कललाद्धनः पेश्यथ वाऽर्बुदम् ॥ ५१ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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