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(२७०)
अष्टाङ्गहृदयेलाखका रस और खरगोशके रक्तकी समान आकृतिबाला और जो धोवनेसे ललाईको त्यागता है ऐसा सुंदर गर्भके अर्थ होता है और शुद्धरूप वीर्य और आर्तववाला और स्वस्थ और आपसमें प्रातिसे संयुक्त स्त्री और पुरुषका मिथुन अर्थात् जोडा श्रेष्ठ है ॥ १९ ॥
स्नेहः पुंसवनैः स्निग्धं शुद्धं शीलितबस्तिकम् ॥
नरं विशेषात्क्षीराज्यमधुरौषधसंस्कृतैः॥ २०॥ महाकल्याण आदि घृतकरके स्निग्ध और वमन विरेचन करके शुद्ध और वस्ति कर्मको अभ्यस्त किये पुरुषको विशेषकरके मधुर औपधोंमें संस्कृत किये दूध और वृतकरके उपचरित करै ॥२०॥
नारी तैलेन माषैश्च पित्तलैः समुपाचरेत् ॥
क्षामप्रसन्नवदना स्फुरच्छ्रोणिपयोधराम् ॥ २१॥ नारीको तेलकरके और उडदोंकरके और पित्तको उपजानेवाले पदार्थोकरके आचरित करै और कृश तथा प्रसन्नरूपमुखवाली और फुरती हुई कटिपश्चाद्भाग और स्तनोंसे संयुक्त ॥ २२ ॥
स्रस्ताक्षिकुक्षिं पुंस्कामां विद्यादृतुमती स्त्रियम् ॥
पद्मं सोचमायाति दिनेऽतीते यथा तथा ॥ २२॥ और ढीलेरूप नेत्र और कुक्षिवाली और पुरुषकी इच्छा करनेवाली स्त्रीको ऋतुमती अर्थात् चोरकपडोंसे आई हुई जानना, जैसे दिनके छिपनेमें कमलका फूल संकुचित होजाता है ॥ २२ ॥
ऋतावतीते योनिः सा शुक्रं नातः प्रतीच्छति ॥
मासेनोपचितं रक्तं धमनीभ्यामृतौ पुनः॥२३॥ ऋतुकालको बीतजानेमें योनि संकुचित हो जाती है इसवास्ते बारह गत्रिस उपरांत योनि वीर्यको ग्रहण नहीं करती है और महीनेंकरके आहार और रससे वृद्धिको प्राप्त हुआ रक्त फिर २३
ईषत्कृष्णं विगन्धं च वायुयॊनिमुखान्नुदेत् ॥
ततः पुष्पेक्षणादेव कल्याणध्यायिनी व्यहम् ॥२४॥ कछुक कृष्ण और गंधसे रहित हुयेको धमनीयोंकरके वायु योनिके मुखसे प्रेरित करता है पछि रजके फूलोंको देखनेसेही नारी तीन दिनतक शुभका ध्यान करनेवाली रहै ।। २४ ॥
मृजालङ्काररहिता दर्भसंस्तरशायिनी ॥
क्षैरेयं यावकं स्तोकं कोष्ठशोधनकर्षणम् ॥ २५ ॥ और शुद्धि तथा गहनोंसे रहित और डाभोंकी शट्यापै शयन करनेवाली और दूधकी प्रसिद्धिसे संयुक्त थोडासा हरीरा और कोष्टको शोधन तथा कर्षण करनेवाले पदार्थको ॥ २५ ॥
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