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(२४४)
अष्टाङ्गहृदयेकेशोन्दुकेन पीतेन द्रवैः कंटकमाक्षिपेत् ॥
सहसा सूत्रबद्धेन वमतस्तेन चेतरत् ॥ ३७॥ कंटक अर्थात् मछली आदिको मांसके संग खाजाय तब कंठके स्रोतमें स्थित हुए कंटकरूप शल्यके निकासनेके अर्थ सूत्रमें बँधे हुये केश अर्थात् वालोंके समूहको पानीआदि द्रवसंज्ञक द्रव्यके संग पीवै, तब वमनकरनेसे शल्य निकस जाता है और तिस कंटककरके प्रमादसे पान किये बालोंके समूहकोभी निकासै ॥ ३७ ॥
अशक्यं मुखनासाभ्यामाहर्तु परतो नुदेत् ॥
अप्पानस्कन्धघाताभ्यां ग्रासशल्यं प्रवेशयेत् ॥ ३८॥ मुख और नासिकामें प्राप्त हुआ शल्य जो मुख और नासिकाकरके नहीं निकस सके तो जिस तिस उपाय करके तिस शल्यको कोष्टमें प्राप्त कर और कंठमें आसक्त हुये ग्रासशल्यको पानीके पीनेस और कंधाको मुष्टिकरके हनन करनेसे कोप्टमें प्राप्त करै ॥ ३८ ॥
सूक्ष्माक्षित्रणशल्यानि क्षौमवालजलैहरेत् ॥
अपां पूर्ण विधुनुयादशिरसमायतम् ॥ ३९॥ नेत्र और घावमें सूक्ष्मरूप शल्योंको रेशमी वस्त्र, बाल, पानीसे योग्यता जानकर निकास और , पानी करके पूरित हुये मनुष्यको नीचेको शिरवाला और लंबा करके कंपावै ॥ ३९॥
वामयेद्वाऽऽमुखं भस्मराशौ वा निखनेन्नरम् ॥
कणेऽम्बुपूणे हस्तेन मथित्वा तैलवारिणी ॥ ४० ॥ अथवा वमन करवाये अथवा मुखत्तक भस्म अर्थात् राम्बके सम्हमें स्थापित करै और पानी करके पूरित कान होथे तो कानको हाथके द्वारा माथित कर पछि तिसमें तेलसे संयुक्त किये पानीको डालै ॥ ४० ॥
क्षिपेदधोमुखं कर्णं हन्याद्वा चूषयेत वा ॥
कीटे स्रोतोगते कर्णं पूरयेल्लवणाम्बुना ॥४१॥ ___ अथवा नीचेको मुखबाले कानको ताडित करै, अथवा शीगीआदिकरके चषित कर और कानके स्त्रोतमें जो कीडी, कानखजुराआदि कीटकी स्थिति होये तो नमकते मिले हुये पानीकरके कानको पूरित करै ॥ ४१ ॥
शुक्तेन वा मुखोप्णेन मृते क्लेदहरो विधिः ॥
जातुषं हेमरूप्यादिधातुजं च चिरस्थितम् ॥ ४२ ॥ __ अथवा सुखपूर्वक गरम किये कांजीकरके कानको पूरित करे और जब वह कीट मर जावे तब क्लेदको हरनेकी विधिको करना और लाख, सोना, चांदी आदि धातु इन्होंसे उपजे शल्य जो चिरकालतक स्थिर रहै तो । १२ ।
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