SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । . (१९५) दंतकाष्ठ, हास इन्होंके अंतमें दोबिंदुवाला प्रतिमर्श नामक नस्य प्रयुक्त करना योग्य है और रात्रिसे लगायत दिनके शयनतक जो पांच काल हैं इन्होंमें प्रतिमर्श नस्य दियाजावै तो स्रोतोंकी शुद्धि होती है और मार्गगमन, परिश्रम, मैथुनके अन्तमें जो प्रतिमर्श नस्य दिया जावे तो श्रमका नाश हो जाता है ॥ २९ ॥ दृग्बलं पञ्चसु ततो दन्तदाढय मरुच्छमः॥ न नस्यमूनसप्ताब्दे नातीताशीतिवत्सरे ॥३०॥ और शिरोभ्यंग आदि पांचोंके अन्तमें जो प्रतिमर्श नस्य दिया जावै तो दृष्टिमें बल उपजताहै और दन्तकाष्ठ और हासके अन्तमें जो प्रतिमर्श नस्य दिया जावै तो दंतोंकी दृढ़ता और वायुकी शांति होती है. और सातवर्षसे कमआयुवाले मनुष्यके अर्थ नस्यको नहीं देवै, और अस्सी वर्षकी आयुसे परे नस्यको न प्रयुक्त करै ॥ ३०॥ . न चोनाष्टादशे धूमः कवलो नोनपञ्चमे ॥ न शुद्धिरूनदशमे न चातिक्रान्तसप्ततौ ॥ ३१ ॥ अठारह वर्षकी अवस्थासे पहले धूमको प्रयुक्त न करै और पांचवर्षकीअवस्थासे पहले कवलको धारण न करै और दशवर्षकी अवस्थासे पहले और सत्तरवर्षकी अवस्थासे परे वमन और विरेचन को प्रयुक्त करै नहीं ॥ ३१ ॥ आजन्ममरणं शस्तः प्रतिमर्शस्तु बस्तिवत् ॥ मर्शवच्च गुणान्कुर्यात्स हि नित्योपसेवनात् ॥ ३२ ॥ जन्ममरणकी अवधिको करके बस्तिकर्मकी तरह प्रतिमर्श नस्य हित है और नित्यप्रति सेवित किया प्रतिमर्शनस्य मशनस्यकी तरह गुणोंको करता है ॥ ३२ ॥ न चात्र यन्त्रणा नापि व्यापद्भयो मर्शवद्भयम् ॥ तैलमेव च नस्यार्थ नित्याभ्यासेन शस्यते ॥ ३३॥ इस प्रतिमर्शमें गरम पानी आदिका उपचार आदि यंत्रणा नहीं है और नेत्रस्तब्धता, शोष आदि व्यापदोंसे भयभी मशकी तरह नहीं है और नस्यमें नित्यप्रति अभ्यासकरके तेल प्रशस्त है ॥ ३३ ॥ शिरसः श्लेष्मधामत्वात्स्नेहाः स्वस्थस्य नेतरे ॥ आशुकृच्चिरकारित्वं गुणोत्कर्षापकृष्टता ॥ ३४ ॥ . शिरको कफका स्थानवाला होनेसे स्वस्थ मनुष्यको स्नेहही श्रेष्ठ है, और कोई नहीं और मर्श शीघ्रकारी है और प्रतिमर्श चिरकारी है. और गुणोंके उत्कर्षपनेसे युक्त मर्श है और गुणोंकी अपकृ . ष्टतासे संयुक्त प्रतिमर्श है ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy