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(१९२)
अष्टाङ्गहृदयेयावत्पतत्यसौ बिन्दुर्दशाष्टौ षट् क्रमेण ते ॥
मर्शस्योत्कृष्टमध्योना मात्रास्ता एव च क्रमात् ॥ १०॥ जबतक गिरे तिसको बिंदु कहते हैं ऐसी दश आठ और छ: क्रमसे बूंदप. वे मर्शसंज्ञकनस्यकी उत्तम और मध्यम हीन मात्रा क्रमसे जाननी ॥ १० ॥
बिन्दुद्वयोनाः कल्कादेोजयेग्न तु नावनम् ॥
तोयमद्यगरस्नेहपीतानां पातुमिच्छताम् ॥ ११ ॥ कल्क स्वरस आदिकी आठ और छ: और तीन बूंद क्रमसे उत्तम और मध्यम और हीन मात्रा जाननी और इन वक्ष्यमाण मनुष्योंके अर्थ नस्यको प्रयुक्त न करै पानी, मदिरा, विष, स्नेहको पीनेवालोंको और पानकरनेकी इच्छावालोंको नस्य न दे ऐसेको देनेसे तिमिरादि दोष होते हैं १ १
भुक्तभक्तशिरःस्नातस्नातुकामस्त्रुतासृजाम् ॥
नवपीनसवेगातसूतिकाश्वासकासिनाम् ॥ १२ ॥ और भोजनको खानेवाले और शिरसे न्हायेहुये स्नान करनेकी कामनावाले और रक्तको निकसाये हुये और नये पनिसवाले वेगकरके पीडित सूतिका श्वास तथा खांसीवाले ॥ १२ ॥
शुद्धानां पत्तबस्तीनां तथा नातवदुर्दिने ॥
अन्यत्रात्ययिकाद् व्याधेरथ नस्यं प्रयोजयेत् ॥ १३ ॥ वमन विरेचनसे शुद्ध बस्तिकर्मको ग्रहण करनेवाले मनुष्योंको और समयसे रहित दुर्दिनमें आवश्यक रोगके विना पूर्वोक्त मनुष्योंको नस्यको प्रयुक्त नहीं करै अर्थात् आत्ययिक रोगमें इन सबोंके अर्थभी नस्यको प्रयुक्त करै अब जिस दोषमें जिस समय नस्य दीजाय सो कहतेहैं ॥ १३ ॥
प्रातः श्लेष्मणि मध्याह्ने पित्ते सायं निशोश्चले ॥
स्वस्थवृत्ते तु पूर्वाह्ने शरत्कालवसन्तयोः ॥ १४ ॥ कफज रोगमें प्रभातही नस्यको प्रयुक्त करै और पित्तजरोगमें मध्याह्न समय नस्यको प्रयुक्त करै और वातजरोगमें तीसरे पहर और सायंकालको नस्य प्रयुक्त करै और स्वस्थ मनुष्यके अर्थ शरदऋतु और वसंतऋतुमें पूर्वाह्न समय नस्यको प्रयुक्त करै ॥ १४ ॥
शीते मध्यदिने ग्रीष्मे सायं वर्षासु सातपे॥
वाताभिभूते शिरसि हिमायामपतानके ॥१५॥ शीतकालमें मध्याह्नके समय नस्यको प्रयुक्त करे और ग्रीष्मऋतुमें सायंकालके समय नस्यको प्रयुक्त करे और वर्षाऋतुमें दिनके समय नस्यको प्रयुक्त करै और वातकरके अभिभूत शिरमें और हिचकी, अपतानकवात ॥ १५॥
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