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( १९०)
अष्टाङ्गहृदये- : विश्लेष्मपित्तादिमलाचयानां विक्षेपसंहारकरः स यस्मात् ॥ तस्यातिवृद्धस्य शमाय नान्यदस्तेविना भेषजमस्ति किञ्चित ॥८६॥
विष्टा, पित्त, कफ, पसीना, मूत्र आदि मलसंचयोंके विक्षेप और संहारको जिसकारणसे वायु करता है, तिस अति बढेहुयेकी शांतिके अर्थ बस्तिकर्मके विना अन्य कोई औषध नहीं है ।। ८६ ।। तस्माञ्चिकित्सार्द्ध इति प्रदिष्टः कृत्स्ना चिकित्सापि च बस्तिरेकैः ॥ तथा निजागन्तु विकारकारी रक्तौषधत्वेन शिराव्यधोऽपि ॥ ८७ ॥
तिस कारणसे दोषोंकी प्रधानतावाले वायुके शमनरूप कारणसे कितनेक आचार्योने चिकि सार्थरूप बस्ति कही है और दोषोंके विकार और आगंतुक विकारको करनेवाले रक्त के औषधरूप होनेसे शिराव्यध अर्थात् फस्तका खुल्हानाभी चिकित्साका अर्धभाग कहा है ।। ८७ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने एकोनविंशोऽध्यायः॥ १९॥
विशोऽध्यायः। अथातो नस्यविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर नस्यविधिनामके अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
ऊर्ध्वजत्रुविकारेषु विशेषान्नस्यमिष्यते ॥
नासाहिशिरसो द्वारं तेन तद्व्याप्य हन्ति तान् ॥ १॥ ऊर्ध्वजत्रुके विकार अर्थात् शिरोरोगआदिमें विशेषकरके नस्य वांछित है क्योंकि शिरका द्वार नासाकाहै तिसकरके तहाँ व्याप्त होकर नम्य तिन रोगोंको नाशताहै ॥ १ ॥
विरेचनं बृंहणं च शमनं च त्रिधापि तत् ॥ - विरेचनं शिरःशूलजाड्यस्यन्दगलामये ॥ २॥ वह नस्य विरेचन १ बृंहण २ शमन ३ तीन प्रकारका है और विरेचन नस्य इन वक्ष्यमाणरोगोंमें हित है शिरका शूल, जाड्यरोग, स्यंदरोग, गलरोग नाकमें डालनेकी औषधीका नाम नस्य है ॥ २॥
शोफगण्डकृमिग्रन्थिकुष्ठापस्मारपीनसे ॥
बृंहणं वातजे शूले सूर्यावर्ते स्वरक्षये ॥३॥ सोजा, गलगंड, कृमि, प्रथि, कुष्ठ, मृगीरोग पनिसमें और वृंहण इन वक्ष्यमाण रोगोंमें नस्य हित है, वातजशूल,, सूर्यावर्त, स्वरक्षय ॥ ३ ॥
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