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(१८०)
अष्टाङ्गहृदयेमनुष्यको दिनमें अनुवासित करवावै और ग्रीष्म, वर्षा शरदृतुओंमें रात्रिमें मनुष्यको अनुवासित करै यह कितनेक वैद्योंका मत है ॥ २१ ॥
अभ्यक्तस्त्रातमुचितात्पादहीनं हितं लघु ॥
अस्निग्धरूक्षमशितं सानुपानं द्रवादि च ॥ २२ ॥ पहले अभ्यंगकरके पीछे स्नान कियेहुये और उचितसे चौथाई हिस्से और हित और हलके और स्निग्धपनेसे रहित और रूक्ष और अनुपानसे सहित द्रवआदिरूपवाले भोजनको कियेहुये।।२२॥
कृतचंक्रमणं मुक्तविण्मूत्रं शयने सुखे ॥ .
नात्युच्छ्रिते नचोच्छीर्षे संविष्टं वामपार्श्वतः॥२३॥ और चंक्रमणको कियेहुये सुखरूप और न अति ऊंची और न अतिनीची शय्यापै अच्छीतर हसे स्थित मनुष्य वामी पसलीकरके ॥ २३ ॥
सङ्कोच्य दक्षिणं सक्थि प्रसार्य च ततोऽपरम् ॥
अथास्य नेत्रं प्रणयेत्स्निग्धे स्निग्धमुखं गुदे ॥२४॥ दाहनी तर्फके सक्थ अर्थात् साथलनामवाले अंगको संकुचित कर और वामी तर्फके सक्थि नामक अंगको प्रसारित कर पीछे उस मनुष्यकी स्निग्धरूप गुदामें स्निग्धरूप पिचकारीके नेत्रको प्राप्त करै ॥ २४ ॥
उच्छास्य बस्तेर्वदने बद्धे हस्तमकम्पयत् ॥
पृष्ठवंशं प्रति ततो नातिद्रुतविलम्बितम् ॥ २५ ॥ पीछे बस्तिके मुखमें उच्छ्वासका वायु है तिसको निकास कर और बद्ध होने हाथको नहीं कँपाताहुआ न अतिशीघ्र और न अति विलंबितपनेसे पृष्ठका वंशके प्रति ॥ २५ ॥
नातिवगं न वा मन्दं सकृदेव प्रपीडयेत् ॥
सावशेषं च कुर्वीत वायुः शेषे हि तिष्ठति ॥ २६ ॥ न अतिवेगसे और न अति मंदपनेसे बस्तिके नेत्रको एकहीवार पीडित करें और स्नेहको शेष न रहने दे क्योंकि शेषरहे स्नेहमें वायुकी स्थिति होजाती है ॥ २६ ॥
दत्तेतृत्तानदेहस्य पाणिना ताडयेत्स्फिचौ॥
तत्पाणिभ्यां तथा शय्यां पादतश्च त्रिरुत्क्षिपेत् ॥ २७॥ . अतिस्नेहको दिये पीछे सीधे शयन करनेवाले मनुष्यके स्फिच अर्थात् कूलोंको हाथसे ताडित करे और तिसी प्रकारकरके तिसके टकनोंकरके तिसके कूलोंकों ताडित करै और पैरोंकी ओरसे तीनवार शय्याको उठावै ॥ २७ ॥
ततः प्रसारिताङ्गस्य सोपधानस्य पार्णिके ॥ आहन्यान्मुष्टिनाङ्गश्च स्नेहेनाभ्यज्य मर्दयेत् ॥२८॥
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