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अष्टाङ्गहृदये
(११४)
क्षुतृइचिप्रभामेधाधीशौर्यतनुमार्दवः ॥
श्लेष्मास्थिरत्वस्निग्धत्वसन्धिबन्धक्षमादिभिः॥३॥ भूख तृषा रुचि कांति शुद्धबुद्धि शूरवीरता शरीरका हलकापन इन्होंकरके इस देहको विकार को न प्राप्तहुआ पित्त अनुगृहीत करता है, और स्थिरता स्निग्धता संधियोंका बंध क्षमा आदियों करके इस देहको अविकृत हुआ कफ अनुगृहति करता है ॥ ३॥
प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो धारणपूरणे ॥
गर्भोत्पादश्च धातूनांश्रेष्टं कर्म क्रमात्स्मृतम् ॥४॥ ___ प्रीणन अर्थात् शरीरको पुष्ट करना, जीवन अर्थात् पराक्रम करना, लेप अर्थात् मांसकर्म, स्नेह अर्थात् नेत्रआदिमें चिकनापन, धारण अर्थात् अस्थियोंको ऊपरके तर्फ धारण करना, पूरण अर्थात् हड्डियोंके स्नेहकरके कर्म करना, गर्भकी उत्पत्ति ये सब कर्म धातुओंके क्रमसे श्रेष्ठ कहे हैं, रस सब स्रोतोंमें प्रवेशकरके इन्द्रियोंको प्रीणन करता है ओजकी वृद्धिकरना रक्तका कर्म है लेप मांसका कर्महै उससे उपलिप्तहो अस्थिचेष्टा करतीहै नेत्रआदिमें चिकनापन मेदका कर्म है ऊर्ध्वधारण स्थिरका कर्म है स्नेहसे अस्थिको पूर्ण करना मज्जाका कर्म है गर्भोत्पत्ति वीर्यका कर्म है ॥४॥
अवष्टम्भः पुरीषस्य मूत्रस्य क्लेदवाहनम् ॥
स्वेदस्य क्लेदविधृतिवृद्धस्तु कुरुतेऽनिलः॥ ५॥ देहको धारण करनेकी शक्ति, यह श्रेष्ठ कर्म विष्ठाका कहा है और क्लेदको बहा देना यह कर्म मूत्रका कहा है, और क्लेदको धारण करना यह कर्म पसीनेका कहाहै स्वेदकाही बालरोमका धारण करना कर्महै । और बढ़ाहुआ वायु ॥ ५ ॥
कार्यकाष्र्योष्णकामित्वकम्पानाहसकृद्रहान् ॥
बलनिद्रेन्द्रियभ्रंशप्रलापभ्रमदीनताः॥ ६ ॥ ___ माडापना, कृष्णपना, गरमपदार्थकी कामना, कंप, अफारा, विडग्रह, बलक्षय,निद्राक्षय,इंद्रि क्षय. प्रलाप, भ्रम दीनपनको करता है ।। ६॥ .
पीतविण्मूत्रनेत्रत्वक्षुत्तड्दाहाल्पनिद्रताः॥
पित्तं श्लेष्माग्निसदनप्रसेकालस्यगौरवम्॥७॥ बढाहुआ पित्त विष्ठा मूत्र नेत्र त्वचा इन्होंका पीलापना, भूख तृषा दाह नींदकी अल्पताको करता है, बढाहुआ कफ मंदाग्नि प्रसेक आलस्य भारीपन ॥ ७॥
श्वैत्यशैत्यश्लथाङ्गत्वश्वासकासातिनिद्रताः॥
रसोऽपि श्लेष्मवद्रक्तं विसर्पप्लीहाविद्रधीन्॥ ८॥ सफेदपना शीतलता अंगोंका मिलाप श्वास खांसी अतिनींद इन्होंको उपजाता है, और रसधातुभी कफके समान है, अर्थात् बढाहुवा करके समान इन्हीं मंदाग्निआदि रोगोंको करता है, बढाहुआ रक्तधातु विसर्प प्लीहारोग विद्रधि ॥ ८॥
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