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अष्टाङ्गहृदये
स्नान - अनुलेप-शतिलवायु - खंडखाद्य - शीतल पानी - दूध - रसयूष - मदिरा - प्रसन्नामदिराइन्होंको सेवित करके पीछे शयनको से ऐसा मनुष्य जो विरतिमें रत होवै तिस मनुष्य के शरीरपै फिर आके तेज प्राप्त होजाता है रतिके अन्त में स्नानादिसे फिर तेज होजाता है बल नहीं घटता ॥ ७५ ॥
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श्रुतचरितसमृद्धे कर्म्मदक्षे दयालौ भिजि निरनुबन्धं देहरक्षां निवेश्य ॥ भवति विपुलतेजः स्वास्थ्य कीर्तिप्रभावः स्वकुशलफलभोगी भूमिपालश्चिरायुः ॥ ७६ ॥
श्रुत और चरितकरके संपन्न और क्रियामें कुशल और दयावान् वैद्यमें निरनुबंध और देहकी रक्षाको निवेशित करके विपुल तेजवाला और स्वस्थ्यता कीर्त्ति प्रभावले युक्त अपने कुशलके फल म भावाला, चिरआयु राजा हो जाता है ॥ ७६ ॥
इति श्रीवेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशासिताष्टाङ्गहृदय संहिता भाषा टीकायां सूत्रस्थाने सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
अष्टमोऽध्यायः ।
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अथातो मात्राशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर मात्राशितीय नामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । मात्राशी सर्वकालं स्यान्मात्रा ह्यग्नेः प्रवर्त्तिका ॥ मात्रां द्रव्याण्यपेक्षन्ते गुरून्यपि लघून्यपि ॥ १ ॥
स्वस्थहो वा रोगीहो परंतु सब कालमें परिमित भोजनको करें, और परिमित भोजन जठराग्निको प्रवृत्त करता है और भारी तथा हलकीरूप मात्राको और द्रव्यको विद्वान् अपेक्षित करते हैं ।। १ ॥ गुरुणामर्द्धसौहित्यं लघूनां नातितृप्तता ॥
मात्राप्रमाणं निर्दिष्टं सुखं यावद्विजीर्य्यति ॥ २ ॥
भारी द्रव्यों के खाने में आधी तृप्ति, और हलके द्रव्योंके सेवनमें अति तृप्ति नहीं करे और जो भोजन किया पदार्थ अधिकारको करके जरजावै यही मात्राका प्रमाण कहा है ॥ २ ॥ भोजनं हीनमात्रं तु न बलोपचयौजसे ॥ सर्वेषां वातरोगाणां हेतुतां च प्रपद्यते ॥ ३ ॥
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