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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५०) अष्टाङ्गहृदयेतैलं स्वयोनिवत्तत्र मुख्यं तीक्ष्णं व्यवायि च ॥ त्वग्दोषकृदचक्षुष्यंसूक्ष्मोष्णं कफकृन्न च ॥ ५५॥ . सब तेल अपने कारणके समान गुणवाले होते हैं अर्थात् जिस वस्तुका तेल हो उसके अनुसार गुणवाला होता है उनमें मुख्य तिलका तेल है वह तीक्ष्ण मद विपरति और व्याप्तिशील है. पान और अभ्याससे दोषकरनेवाला, नेत्रोंमें अहित, और सूक्ष्म गरम, स्त्रोतोंमें जानेवाला और कफको करनेवाला नहीं है ॥ ५५॥ कृशानां बृंहणायालं स्थूलानां कर्शनाय च ॥ बद्धविट्कं कृमिघ्नं च संस्कारात् सर्वदोषजित् ॥५६॥ कृश मनुष्योंको बृंहणके अर्थ, स्थूलोंको कृशकरनेके अर्थ यह पूर्ण है, * विष्टाको बांधता है, कृमियोंको नाशता है, और संस्कारसे सब दोषोंको जीतता है ॥ ५६ ॥ सतिक्तोष्णमरण्डं च तैलं स्वादु सरंगुरु ॥ वर्मगुल्मानिलकफानुदरं विषमज्वरम् ॥ ५७॥ अरंडका तेल तिक्त है, उष्ण है. स्वादु है, सर है, भारी और वर्भ गुल्म कफ वात उदर रोग विषमज्वर ॥ १७॥ रुक्शोफौ च कटीगुह्यकोष्ठपृष्ठाश्रयौ जयेत् ॥ तीक्ष्णोष्णं पिच्छिलं विस्रं रक्तरण्डोद्भवं त्वति॥ ५८॥ कटि पृष्ठ गुदा कोष्ठ इन्होंके आश्रितहुये शूल और शोजाको जीतताहै, और रक्तअरंडका तेल अतितीक्ष्ण और अतिगरम है पिच्छिल है और विस्त्र है ॥ ५८ ॥ कटूष्णं सार्षपं तीक्ष्णं कफशुक्रानिलापहम् ॥ लघुपित्तास्त्रवत्कोठकुष्ठा व्रणजंतुजित् ॥ ५९॥ सरसोंका तेल कटु है गरम है तीक्ष्ण है और कफ वीर्य वातको नाशता है हलका है, रक्तपित्तको करता है कोठ कुष्ठ बवासीर व्रणके कृमिको जीतता है ॥ ५९॥ आक्षं स्वादु हिमं केश्यं गुरु पित्तानिलापहम् ॥ नात्युष्णं निम्वजं तिक्तं कृमिकुष्ठकफप्रणुत् ॥६॥ बहेडाको तेल स्वादुहै, शीतलहे बालोंमें हितहै भारी है वात और पित्तको हरता है। नीबका तेल अतिउष्ण नहीं है, और तिक्त है कृमि कुष्ठ कफको नाशताहै ।। ६० ॥ * रूखी पवन जब देहके छिद्रोंको संकुचित करती है तब रसउत्तम प्रकारसे नहीं बहते, रससे रुधिरके न बढनेसे प्राणी कृश हो जाता है उसमें यह तेल सर सूक्ष्म स्निग्ध और मदुताके कारण उस रसके बहानेमें समर्थ है इससे कृश मनुष्य इसके लगानेसे पुष्ट होते हैं और व्यवायी सूक्ष्म तीक्ष्ण उष्ण और दस्तावर होनेके कारण शनैः मेदको क्षय करता है यह तेल लेखन अर्थात् कृशकारी है ! For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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