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(१०३४)
अष्टाङ्गहृदयेकं यतात्मा मासादूर्ध्वं सर्वथा स्वैरवृत्तिः ॥ वयं यत्नात्सर्वकालं त्वजीर्णं वर्षेणैवं योगमेवोपयुंज्यात् ॥ ६८॥ भवति विगतरोगो योऽप्यसाध्यामयातः प्रबलपुरुषकारः शोभतेयोऽ पि वृद्धः ॥उपचितपृथुगात्रश्रोत्रनेत्रादियुक्तस्तरुण इव समानां पंच जीवेच्छतानि ॥ ६९ ॥ कलहारी त्रिफला लोहा इन्होंको भंगराके स्वरसमें पीस इस २०० तोले द्रव्यकी ३६० गोलियां बनावै ॥ ६६ ॥ छायामें सुखावे, पहिले आधी गोलियोंको खावै पीछे क्रमसे तिन सबोंको सेवे और विरक्तहुआ क्रमसे मंड पेया विलेपी मांसके रसके संग चावलको सेवै ॥ ६७ ॥ और एक महीनातक जितात्मा होके घत और स्निग्धरूप अन्नको खावै और महनिसे उपरांत सब प्रकारसे इच्छापूर्वक वतै और सबकालमें जतनसे अर्णिको वर्जे एक वर्षतक इसयोगको उपयुक्तकरै ॥ ६८ ॥ असाध्य रोगसे पीडितहुआ मनुष्यभी विगतरोगोंवाला और अत्यंत पुरुषार्थवाला वृद्धभी होके शोभित होताहै और पुष्ट तथा विस्तृतरूप गात्र कान नेत्र आदिसे युक्तहुआ जवान पुरुषकी समान होके ५०० वर्षतक जीवताहै ॥ ६९॥
गायत्रीशिखिशिंशपासनशिवावेल्लाक्षकारुष्करान्पिष्ट्वाष्टादशसंगणेभसिधृतान्खंडैः सहायोमयैः॥पात्रेलोहमयेत्यहं रवि करैरालोडयन्पाचयेदग्नौ चानुमृदौ सलोहशकलं पादस्थितं तत्पचेत् ॥ १७० ॥ पूतस्यांशः क्षीरतोंशस्तथांशोभान्निर्या सावौ वरायास्त्रयोंशा॥अंशाश्चत्वारश्चेह हैयंगवीनादेकीकृत्यै तत्साधयेत्कृष्णलोहैः ॥ ७१॥ विमलखंडसितामधुभिः पृथग्युतमयुक्तमिदं यदि वा घृतम् ॥ स्वरुचिभोजनपानविचेष्टितो भवति ना पलशः परिशीलयन् ॥७२॥श्रीमान्निधूतपाप्मा वनमहिषवलो वाजिवेगःस्थिरांगः केशै गांगनीलैर्मधु सुरभिमुखो नैकयोपिन्निषेवी ॥ वाङ्मधाधीसमृद्धः सपटुहुत वहोमासमात्रोपयोगाद्धत्तेऽसौ नारसिंहं वपुरनलशिखातप्तचामीकराभम् ॥ ७३ ॥ अत्तारं नारसिंहस्य व्याधयो न स्पृशंत्यपि ॥ चक्रोज्ज्वलभुजं भीता नारसिंहमिवासुराः ॥ ७४ ॥
खैर सीसम चीता आसना हरडै वायविडंग बहेडा भिलावाँ इन्होंको अठारह गुने पानीमें लोहेके खंडोंसे पीस लोहेके पात्रमें तीनदिनोंतक आलोडित करताहुआ सूर्यको किरणोंसे पकावै पीछे कोमलरूप अग्निमें लोहेके टुकडेसे चौथाई भाग स्थितकर पकावै ॥ १७० ॥ छानेहुये इसके समानभाग दूध और भंगेरेके चूर्णका क्वाथ दोभाग और त्रिफला तीनभाग और घृत ४ भाग
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