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(१०१६)
अष्टाङ्गहृदये॥२९॥ स्विन्नानि तान्यामलकानि तृप्त्या खादेन्नरःक्षौद्रघृतान्वितानि ॥क्षीरं सृतं चानुपिबेत्प्रकामं तेनैव वर्तेत चमासमेकम् ॥३०॥ वानि वानि च तत्र यत्नात्स्पृश्यं च शीताम्बु न पाणिनापि॥एकादशाहेऽस्य ततोव्यतीते पतन्ति केशा दशनानखाश्च ॥३१॥ अथाल्पकैरेव दिनैः सुरूपःस्त्रीष्वक्षयः कु. अरतुल्यवीर्यः॥ विशिष्टमेधाबलबुद्धिसत्त्वो भवत्यसौ वर्षसहस्त्रजीवी ॥ ३२॥ कोडे आदिसे रहित हुये ढाकके शिरेको काट पीछे भीतरसे २ हाथ प्रमाणसे संयुक्त और गंभीर तिसकी लकडीको नवीन आंमलोंसे आपूरितकर ॥ २८ ॥ और जडतक डाभसे वेष्टितकर और कमलिनीकी कीचडसे लेपितकर पीछे वनके आरने उपलोंसे प्रचलितकर वातसे वर्जित स्थानमें स्वेदित करै ॥ २९॥ स्वेदितकिये आंवलोंको तसे संयुक्तकर तप्तिपूर्वक खावै दूधका और घृतका अनुपान करै ऐसे एक महीनातक वर्ते ॥३०॥ और अपथ्य पदार्थोको व जतनसे हाथसेभी शतिल पानीका स्पर्श न करै पीछे इसको सेवतेहुये ग्यारहदिन व्यतीत होजावे तब दंत बाल नख गिरजातेहैं ॥ ३१ ॥ पीछे थोडेसे दिनोंमें सुंदररूपवाला और स्त्रियोंमें नहीं क्षय होनेवाला हाथीके तुल्य वीर्यवाला विशिष्टरूप धारणा बल बुद्धि सत्वगुणसे संयुक्त और हजार वर्षोंतक जविनेवाला वह मनुष्य होजाताहै ।। ३२ ।।
दशमूलबलामुस्तजीवकर्षभकोत्पलम् ॥ पर्णिन्यौ पिप्पली,गी मेदा तामलकी त्रुटिः ॥ ३३ ॥ जीवन्ती जोङ्गकं द्राक्षा पौष्करं चन्दनं शठी ॥ पुनर्नवद्विकाकोली काकनासामृताह्वयाः ॥ ३४॥ विदारी वृषमूलं च तदैकध्यं पलोन्मितम् ॥ जलद्रोणे पचेत्पञ्चधात्रीफलशतानि च ॥३५॥ पादशेषं रसं तस्माद्यस्थीन्यामलकानि च।गृहीत्वा भर्जयेत्तैलघृतादादशभिः पलैः ॥३६॥ मत्स्याण्डिकातुलार्धन युक्तं तल्लेहवत्पचेत् ॥ स्नेहाई मधुसिद्धे तु तवक्षीर्याश्चतुष्पलम् ॥ ३७ ॥ पिप्पल्या द्विपलं दद्याच्चतुर्जातं कणादितम्।।अतोऽवलेहयेन्मात्रां कुटीस्थः पथ्यभोजनः ॥३८॥ इत्येष च्यवनप्राशो यंप्राश्य च्यवनो मुनिः॥जराजर्जरितोऽप्यासीन्नारीनयननन्दनः ॥३९॥ कासं श्वासं ज्वरं शोषं हृद्रोगंवातशोणितम् ॥ मूत्रशुक्राश्रयान्दोपान्वैस्वयं चव्यपाहति॥बालवृद्धक्षतक्षीणकृशानामङ्गवर्द्धनः॥
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