________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१०११) तक्रेण शरपुंखाया बीजं संचूर्ण्य वा पिबेत् ॥ २७॥ अथवा शरपुंखाके बीजोंका चूर्णकर तक्रके संग पीवै ॥ २७ ॥
अङ्कोल्लमूलकल्को वा बस्तमूत्रेण कल्कितः॥
पानालेपनयोयुक्तः सर्वाखुविषनाशनः ॥ २८ ॥ अथवा बकरेके मूत्रमें पिसाहुआ अंकोलीकी जडका कल्क पान और लेपनमें युक्त किया सब मूसोंके विषको नाशताहैं ॥ २८ ॥
कपित्थमध्यतिलकतिलाडोल्लजटाः पिबेत् ॥
गवां मूत्रेण पयसा मञ्जरी तिलकस्य वा ॥ २९ ॥ कैथका गूदा तिलक वृक्ष तिल अंकोलीकी जड इन्होंको गोमूत्रके संग पीवै, अथवा तिलक वृक्षकी मंजरीको दूधके संग पावै ॥ २९॥
अथवा सैर्यकान्मूलं सक्षौद्रं तन्दुलाम्बुना ॥ अथवा श्वेत कुरंटाकी जडको शहदमें मिला चौलाईके पानी के संग पीवै ॥
कटुकालाबुविन्यस्तं पीतं वाम्बु निशोषितम् ॥ ३० ॥ अथवा कडवीतूंबीमें शोषितकिये और रात्रिभर स्थितकिये पानीको पावै ॥ ३० ॥
सिन्दुवारस्य मूलानि विडालास्थिविषं नतम् ॥
जलपिष्टो गदो हन्ति नस्यायैराखुजं विषम् ॥ ३१॥ ___ संभालूकी जड बिलावकी हड्डी रक्तबोल तगरको जलमें पीसै यह औषध नस्य आदिसे मूसाके विषको नाशताहै ॥ ३१ ॥
सशेषं मूषिकविषं प्रकुप्यत्यभ्रदर्शने ॥
यथायथं वा कालेषु दोषाणा वृद्धिहेतुषु ॥ ३२ ॥ शेष रहा मुसेका विष बद्दलोंके दीखनमें कुपित होताहै, अथवा वात आदिके यथायोग्य वृद्धिक कालोंमें कुपित होताहै ॥ ३२ ॥
तत्र सर्वे यथावस्थं प्रयोज्याः स्युरुपक्रमाः ॥
यथास्वं ये च निर्दिष्टास्तथा दूषीविषापहाः ॥ ३३॥ तिस अवस्थामें यथायोग्य चिकित्सा प्रयुक्त करनी योग्यहै और दूषीविषको नाशनेवाले जो जो योग कहेहैं वे यहां युक्त करने योग्यहैं ।। ३३॥
दंशं डलर्कदष्टस्य दग्धमुष्णेन सर्पिषा ॥
प्रदिह्यादगदैस्तैस्तैः पुराणं च घृतं पिबेत् ॥ ३४ ॥ कुत्तेसे दष्टहुयेके दंशको गरम घृतकरके दग्धकर पीछे तिसे उन उन पूर्वोक्त औषधोंसे लेपित कर और पुराने घृतको पावै ॥ ३४ ॥
For Private and Personal Use Only