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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९९१) सुसूक्ष्मं सम्यगालोच्य विशिष्टां वाऽऽचरेक्रियाम् ॥ - और सर्पका दोष प्रकृति स्थान वेगके विशेषसे ॥ १६ ॥ सूक्ष्म बुद्धिकरके अच्छीतरह देख विशिष्ट क्रियाको करै॥
सिन्दुवारितमूलानि श्वेता च गिरिकर्णिका ॥ ५७ ॥
पानं दर्वीकरैर्दष्टे नश्यं मधु सपाकलम् ॥ और संभालूकी जड अपराजिता विष्णुकांता ॥ १७ ॥ कूठ शहद इन्होंसे बनाया पान अथवा नस्य घृत दर्वीकर सोके दष्टमें हितहै ।
कृष्णसर्पण दृष्टस्य लिम्पदशं हृतेऽसृजि ॥ ५८ ॥ चारटीनाकुलीभ्यां वा तीक्ष्णमूलविषण वा ॥
पानं च क्षौद्रमञ्जिष्ठागृहधूमयुतं घृतम् ॥ ५९॥ और काले सांपसे दष्टहुये मनुष्यके रक्तको निकास दंशको लीपै।। ५८॥ चिरमठी और साक्षिसे अथवा तीक्ष्णरूप मूल विषसे लेपितकरै और शहद मजीठ घरकाधूम इन्होंसे युक्त किये घृतकोपीवै५९
तन्डुलीयककाश्म-किणिहीगिरिकर्णिकाः॥ मातुलुङ्गी सिता सेलुः पाननस्याञ्जनैहितः॥६०॥
अगदः फणिनां घोरे विषे राजीमतामपि ॥ . चौलाई कंभारी किणिहि विष्णुकांता नींब विशेष अथवा विजोरा मिसरी किकरोलि इन्होंका औषध पान नस्य अंजनकरके ॥ ६० ॥ फणावाले और राजिल साँके घोर विषमें हितहै ॥
समाः सुगन्धा मृद्वीका श्वेताख्या गजदन्तिका ॥ ६१ ॥ अर्धाशं सौरसं पत्रं कपित्थं बिल्वदाडिमम् ॥
सक्षौद्रो मण्डलिविषे विशेषादगदो हितः॥६२॥ और श्वेत संभालु मुनक्कादाख विष्णुक्रांता गजदंतिका ये सब समभाग॥६१॥आधेभाग तुलसीके पत्ते कैथ बेलगिरी अनारदाना इन्होंके चूर्णमें शहद मिलावै यह औषध मंडलवाले सोंके विषमें हितहै।३२॥
पञ्चवल्कवरायष्टीनागपुष्पैलवालुकम् ॥ जीवकर्षभकौशीरं सितापद्मकमुत्पलम् ॥ ६३॥ सक्षौद्री हिमवान्नाम हन्ति मण्डलिनां विषम् ॥
लेपाच्छ्यथुवीसर्पविस्फोटज्वरदाहहा ॥ ६४ ॥ बडकी छाल गलरकी छाल पीपलकी छाल पारिसपीपलकी छाल बेतकी छाल त्रिफला मुलहटीं नागकेसर ऐलुवा जीवक ऋषभक खस मिसरी पद्माष कमल ॥ ६३ ॥ शहद यह हिमवान् नामवाला औषधहै, लेपसे मंडली सोका विष शोजा विसर्प विस्फोटज्वर दाह इनको नासताहै ॥६॥
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