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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९८३ ) श्लैष्मिकं वमनैरुष्णरूक्षतीक्ष्णैः प्रलेपनैः॥
कषायकटुतिक्कैश्च भोजनैः शमयेद्विषम् ॥६६॥ श्लैष्मिक विषको वमन गरम रूखा तीक्ष्ण लेप और कसैला कडुवा तिक्त भोजन इनसे शांतकर॥६६॥
पैत्तिकं टेसनैः सेकप्रदेहै शशीतलैः॥ - कषायतिक्तमधुरैघृतयुक्तैश्च भोजनैः॥६७॥ पैत्तिक विषको जुलाब सेक अत्यंत शीतल लेप और कसैले तिक्त मधुर घृत संयुक्त भोजनसे शांतकरै ॥ ६७ ॥
वातात्मकं जयेत्स्वादुस्निग्धाम्ललवणान्वितैः ॥ सघृतै जनैलेंपैस्तथैव पिशिताशनैः ॥६८॥
नाघृतं स्रसनं शस्तं प्रलेपो भोज्यमौषधम् ॥ . स्वादु स्निग्ध अम्ल लवण घृतसे युक्त भोजन लेप और मांसका भोजन इन्होंसे वातिक विषको जीते ॥ ६८ ॥ विषमें घृतसे वर्जित जुलाब और लेप भोजन औषध ये हित नहींहैं ।।।
सर्वेषु सर्वावस्थेषु विषेषु न घृतोपमम् ॥ ६९ ॥ विद्यते भेषजं किञ्जिद्विशेषात्प्रबलेऽनिले॥ और सब अवस्थावाले सब विषोंमें घृतके समान ॥ ६९ ॥ कोईभी औषध नहीं है, और बढेहुये वायुमें विशेषकरके घतके समान कोई औषध नहींहै ॥
अयत्नाच्छैष्मिकं साध्यं यत्नास्पित्ताशयाश्रयम् ॥७॥ और कफगत विष जतनके विनाही साध्य कहाहै, और पित्ताशयमें स्थितहुआ विष जतनसे साध्य कहाहै ॥ ७० ॥
सुदुःसाध्यमसाध्यं वा वाताशयगतं विषम् ॥ ७१ ॥ वाताशयमें प्राप्तहुआ विष अत्यंत दुःसाध्य अथवा असाध्य कहाहै ॥ ७१ ।।। इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ पत्रिंशोऽध्यायः।
-CCORDoorअथातः सर्पविषप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर सर्पविषप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
दर्वीकरा मण्डलिनो राजीमन्तश्च पन्नगाः॥ त्रिधा समासतो भौमा भिद्यन्ते ते त्वनेकधा ॥१॥ व्यासतो योनिभेदेन नोच्यन्तेऽनुपयोगिनः॥
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