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________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shil kailassaganser Cyanmandir ऐसी गुच्छ, युक्ति युक्त शुकी के वचन सुन कर राजा विस्मित हो मन में विचार करने लगा-यह पक्षी। गुह्य वात किस तरह जानता है ? ऐसा विचार कर बोला, हे भद्र! तू ने मुझे नहीं देखा होगा, तू यह बात किस तरह जानती है ? इस बात को सुनने का मेरे कौतुक है, तू समझा कह । तब शुकी बोली हे महाराज ! । सुनो, मैं एक दृष्टान्त कहती हूँ जो बात आपके अन्तःपुर में हुई है उसको प्रकाशित करती हूँ। आपके राज्य में एक तापसी कूट और कपट तथा झूठ का भण्डार थी। महा रौद्र भयंकर स्वभाव बाली थी। उसका में बहुत मान ! था। आपके अन्तःपुरमें स्वेच्छया प्रवेश करती थी। जिसका खंडन कोई नहीं करता था। आपकी रानी श्रीकान्ता ने एक दिन कहा-हे स्वामिनी ! मैं राजा की रानी है और मेरा स्वामी मेरे परसाधारण प्रम रखता है, क्योंकि उसके अन्तःपुर में कई वल्लभ भार्याऐ हैं। मैं अपने कर्मवश सुख कम भोगती। हूँ। इसलिये हे भमवती ! मेरे पर प्रसन्न होकर ऐसा काम कर, जिससे मेरे पर पति का प्रेम विशेष हो। ऐसा उपाय करो जिससे मेरे मरने पर मरे और जीने पर जीधे । मेरा मनोरथ सिद्ध करो, विशेष क्या कहूँ ? तब वह तापसी रानी के वचनों का अभिप्राय जान कर बोली, हे भद्र ! यह औषधी का बलय देती हूँ तू अपने हाथों से अपने स्वामी को देना जिससे वह तेरे घशवत्ती रहेगा और तेरा मनोरथ सिद्ध होगा। यह बात सुन रानी बोली Reet For Private And Personal use only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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