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________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Sh Kailassagarsur Gyanmandie श्री अष्ट। मेरे पास ले आओ जिससे दुष्ट चोरवत् उसको प्राणान्त दण्ड देऊ ।इस तरह कह कर राजा अपने स्थान को चला। प्रकार पूजा गया कोई समय शुकराज राजा की आज्ञानुसार लगाये हुए जाल में फंस गया और राजा के पास लाया गया। 9 शुकी भी उसके पीछे आंसू गिराती हुई पति के अति स्नेह से दुखित हुई दौड़ीराजभवन पर पहुंची। जब राजा सभा में बैठा था तब क्षेत्रपालक ने विनती की-हे महाराज ! वह अपराधी शुक चोर की तरह पकड़ा गया और आपके पास लाया हूँ। राजा सुन कर प्रसन्न हुआ और उसके पास से लेकर शुक को मारने लगा । इतनेमें यह शुकी जल्दी से अपने स्वामीके मध्य खड़ी हो बोली-हे नाथ ! आप इसे क्यों मारते हैं? पहिले । * मुझे मारो, इस प्रकार फिर निरर्थक बोली-यह मेरा जीवनदाता पति है, आपके शालिक्षेत्र के चावलों के कच्चे * सिरे खाने का मुझको ही दोहद उत्पन्न हुआ था। इसने अपने जीवन की पाशा छोड़ कर मेरा मनोरथ पूर्ण किया। है। ऐसे मधुर वचन सुनते ही राजा का कोप शान्त हुआ और प्रसन्न हो उसकी प्रशंसा करने लगा-हे शुकराज! " विचक्षण ! तू बड़ा खांतिमान् और साहसी है, जो अपने देह की पाशा छोड़ कर स्त्री की रक्षा की। यह वचन । सुन राजा से शुकी कहने लगो, हे महाराज ! यो तो संसार में माता, पिता, पुत्र, धन और सम्पदा का राग है है परन्तु स्त्री राग अपने प्राणों से भी प्रिय है। आप भी तो श्रीकान्ता रानी के लिए अपना जीवन देने को उद्यत रहते हैं। इसमें किसी का दोष नहीं अपना स्नेह सबको प्रिय है, इस विचारे शुक का क्या अपराध ? For Private And Personal Use Only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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