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________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shil kailassaganser Cyanmandir * इस लिये इस मेरे मनुय्य जन्म को धिकार है, मैं ऐसा धर्महीन होकर नर भव कैसे पालिया ? इस तरह विचार श्री श्री प्रकार करता हुश्रा अपने घर पहुंचा । सार्ववाह ने इसको उदास आता हुआ देखकर कारण पूछा और गन्ध धूप सहित पूजा एक धूपका पुटक (पुड़ियो) दिया। विनयधर कुमार ने उसको पाकर सन्तुष्ट चित्त होकर कहा आज शुभ अवसर ॥१४॥ प्राप्त हुआ। जितने इसके परिवार वाले थे उन्हों ने भी एक २ धूप पूड़ा ले २ चण्डिका देवी के मन्दिर में जाना प्रारम्भ किया और उस देवीके अगाड़ी धूपदानी में डाल दिये। विनयंधर कुमार धर्मपर अनुराग रखता हुआ श्री वीतराग भगवान् के मन्दिर में गया और हाथ पैर धोकर जान से नासिका बांधकर बड़ी भक्ति से धूपदानी में धीरे २ पटकने लगा। वह धूप का गन्ध पृथ्वी और आकाश में फैलगया । कुमार ने धूप भाजन हाथ में लेकर प्रतिज्ञा की ।। कि जब तक यह धूप भगवान् के आगे लगता रहेगा तबतक मैं अपने घर नहीं जाऊंगो। ऐसा अभिग्रह लिया। उस समय आकाश में यक्ष और यक्षिणी विमान पर बैठ कर कहीं जाते थे, तब यक्षिणी उस कुवर प्र की भक्ति देखकर बोली, हे स्वामिन् ! देखो यह युवा जिनराजके मागे सुगन्ध धूप करता है श्राप क्षणभर विमान ! ठहराभो तो इस धूप का परिमल (गन्ध) ग्रहण करें। इसकी कैसी शक्ति है? यह शक्ति और भक्ति वाला प्रतीत علیحد المللظبط ॥ १४ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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