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________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shil kailassaganser Cyanmandir श्री अष्ट प्रकार प्रजा ॥ ६४ ॥ तष गुरू थोले हे भद्र वह कुंभकार महानुभाव भक्ति से। अनुमोदना गुण को धारण करता हुआ तेरी भक्ति का स्मरण चित्त से करता हुआ मर कर इस भव में तेरा पिता राजा हुआ है। यह बात गुरू के मुख से सुनकर राजा मन में अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ, उठकर बार २ गुरू को प्रणाम करने लगा। पूर्व भव का चरित्र जाति स्मरण ज्ञान से जाना, जैसे गुरू ने कहा वैसे आद्योपान्त अपने पूर्व भव का सम्बन्ध प्रत्यक्ष देखा, देखकर गुरू से इस प्रकार कहने लगा । हे भगवन् ! जैसे आपने कहा वैसे ही यथा स्थित वार्ता है, हमने भी जाति स्मरण ज्ञान से अपने पूर्वे भव का सम्बन्ध जाना । अब दुर्गता स्त्री के पास कुभश्री ने आकर पूर्व भव के अपने अपराध क्षमा कराये, और बार२ पैरों 5 में प्रणाम किया। दुर्गता ने भी सरल स्वभाव से महासती कुभश्री से कहा हे बहिन ! यह मेरे रोग रूप घड़े * का भार उतारो, कृपया,मेरी आत्मा का हित करो।तय कुंभश्री ने उसके मस्तक पर अपना हाथ फेरा, जिससे मैं उसकी व्याधि मिट गई। ऐसा चरित्र देख कर राजाने अपनी पुत्री और बहुत से लोगों के साथ उज्वल भाव भक्ति से श्री वीतराग भगवान् की जलपूजा करने की तय्यारी की। कुभश्री भी जैसे पिता करता है वैसे ही श्री जिनराज की ॥ ६४ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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