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________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Sh Kailassagar Gyanmandi श्री अए प्रकार हमारे पतिको जलांजलि देनेको लाया गया था, वह इसने जिन मन्दिरमें कैसे चढ़ा दिया? इतने में उसकी पुत्रवत् । सोमश्री अई उसको देखकर अत्यन्त कुपित हुई लकड़ी लेकर कहने लगी, अरी ! दुष्टा ! तू हमारे घर से घड़ा लेकर गई थी, वह क्यों नहीं लाई ? विना घड़े के अन्दर मत मा, घड़ा लेकर था। फिर कहने लगी तुझे जिनपूजा पञ्जभ (प्रिय) लगी, जो ब्राह्मण निमित्त लाया हुथा घड़ा देदिया और तर्पण नहीं कराया। इस प्रकार वार२ । उसको भत्र्सना कर के घर से बाहर निकाल दी। तब वह बिलाप करती, रोती हुई कुम्हार के घर गई और बोली हे वान्धव ! मुझे एक घड़ा दे और न मेरे हाथ का कंकण ग्रहण कर । यह सुन कुम्हार बोला हे बहिन । तू क्या भांगती है ? और क्यों घबराती है ? विलाप करने चौर रोने का क्या कारण है? तब सोमश्री ने उससे अपना सब वृत्तान्त कह दिया । सुन कर कुम्हार ने कहा हे या! तू धन्य है, तूने जिन मन्दिर में जल दान दिया, वह बहुत अच्छा किया । मनुष्य जन्म पाने का यही लाभ है, यह ही मुक्ति मार्ग का सुखदायी बीज है। ऐसी अनुमोदना करते हुए उसने शुभ कर्म का उपार्जन किया। शास्त्र में कहा है जो जोव धर्म की अनुमोदना करता है वह संसार-समुद्र से पार हो जाता है। ॥ ६१ ॥ For Private And Personal use only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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