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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री अट प्रकार पूजा ॥ ५३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कई धाइयों से लालन-पालन किया जाता हुआ यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। सब कला सिखाई गई। हाली राजा अपने पुण्य प्रभाव से उसपर अत्यन्त प्रीति रखता था. कुमार अपने माता पिता का अत्यन्त वल्लभ था । उस हाजी राजा ने अपना राज्य का काम पुत्रको सौंप दिया, स्वयं श्रावक की करणी करने लगा अन्त में आयु चय कर प्रथम देव लोक में उत्पन्न हुआ । वहां जय २ कार शब्द सहित बड़ी ऋद्धि, विमान, देव देवियों का परिवार देखकर विचार करने लगा मैंने पूर्व भव में श्री वीतराग भगवान् की नेवेद्य पूजा की थी, उसका यह फल है । अप्सराओं की सुख संपत्ति देख अवधि ज्ञान से अपने पूर्व जन्म का संबंध जान लिया और राज्य करते हुए अपने पुत्र को प्रति बोध देना चाहा। वहां से अपने राज्य में आकर पिछली रात को अपने पुत्र से कहने लगा- हे प्रिय पुत्र ! तू मेरी बात सुन मैंने पूर्व जन्म में श्री वीतराग भगवान् के नैवेद्य की पूजा की थी, उससे मुझे देवताओं की ऋद्धि, देवसुख प्राप्त हुआ है। यह सब धर्म का ही प्रभाव है अतः हे महा यशस्वी, बल्लभ पुत्र ! तुम भी धर्म का उपार्जन करो जिससे सुख पाओगे, ऐसा प्रतिदिन कह कर वह देव चला जाता । एक दिन कुसुम राजा ने विचार किया यह कौन है ? जो मुझे मधुर वचन सुना कर अदृश्य हो चला For Private And Personal Use Only ॥ ५३ ॥
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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