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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शोध-प्रबन्ध-लेखन/87 कक्षा में उतने छात्र नहीं होते जितने छात्र विभाग में पी-एचड़ी. उपाधि के लिए शोध हेतु पंजीकृत होते हैं। इनमें से अधिकांश शोधार्थी विभाग में महीनों तक दर्शन नहीं देते और अचानक शोध-प्रबन्ध का हस्तलिखित पोथा लेकर शोध-निर्देशक के घर उपस्थित हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में शोध-निर्देशक या तो अपनी सहनशीलता और उदारता खो बैठता है तथा पौथे को उलट-पलट कर एक-दो वाक्यों में पुनः समस्त कार्य करने का निर्देश दे डालता है या “परम उदार न सिर पर कोऊ" की नीति अपनाकर उस पोथे को मन ही मन प्रणाम करता है तथा टंकण की स्वीकृति दे देता है । शोधार्थी के चले जाने पर एक संकट से मुक्ति मान अपने निकटतम मित्र परीक्षकों की सूची विश्वविद्यालय में भेजकर समय पर शोधार्थी की गाडी पार करा देता है तथा अपनी योग्यता-सूची में एक नये शोधार्थी के पी-एच ड़ी. हो जाने की वृद्धि कर लेता है । “हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।” सार बात यही है कि शोध-निर्देशक को नियमानुसार शोधकर्मी के कार्य को नियंत्रित करना चाहिए तथा समय-समय पर उसके लिखित कार्य में संशोधन करते रहना चाहिए। किन्तु यह तभी संभव है, जब शोध-निर्देशक में पूर्वोक्त गुण हों तथा शोध-कार्य के प्रति उसकी पूर्ण आस्था हो । शोध-कर्ता से अपेक्षाएँ जहाँ शोध-निर्देशक का कार्य नौकरी और पदोन्नति से जुड़ गया है, वहीं शोधकर्ता भी बेकारी से जूझता हुआ प्रायः नौकरी के लिए ही शोध-कार्य में प्रवृत्त होने लगा है। अत: अन्य बातों की ओर उसका रुझान अधिक रहता है । “पर-हित निरत” रहकर वह अपनी “नैया पार" करना चाहता है। वस्तुतः शोध-प्रबन्ध-लेखन के लिए शोध-कर्ता को निरन्तर विवेचनात्मक टिप्पणियाँ लिखने का प्रयास करना चाहिए। ऐस टिप्पणियों या आलेखों को उसे दुबारा पढ़कर स्वयं परखना चाहिए और फिर शोध-निर्देशक को दिखाते रहना तथा उपयुक्त निर्देश लेना चाहिए। भाषा पर भी उसे अपना अधिकार बढ़ाना चाहिए। निरन्तर भाषा-सम्बन्धी अभिव्यंजना-शक्ति के विकास में प्रवृत्त रहकर उसे अपनी एक विशेष शैली विकसित करनी चाहिए। विषय से सम्बन्धित सामग्री जहाँ भी मिले,उसे पढ़ते रहने की प्रवृत्ति पैदा करनी चाहिए। एक बार लिखी सामग्री को ही आलस्य-वश पर्याप्त मानकर शोध-निर्देशक के पास संशोधन या टंकण-अनुमति के लिए नहीं ले जाना चाहिए, बल्कि कई बार उसे पढ़कर परिमार्जित रूप देना चाहिए । शोध-निर्देशक के पास यों ही नहीं पहुँच जाना चाहिए, बल्कि पहले मिलने का समय तय कर लेना चाहिए। शोध-निर्देशक यदि व्यस्त हो और फिर आने के लिए निर्देश दे, तो खीझना नहीं चाहिए। अपनी क्षमता, कठिन परिश्रम, निरन्तर लेखन-अभ्यास तथा शोध-कर्म के प्रति तल्लीनता ही शोधार्थी के शोध-कार्य को मौलिक बना सकती है। शोधार्थी में लेखन-क्षमता और भाषा-योग्यता का अभाव हुआ तो कभी भी शोध-प्रबन्ध ठीक ढंग से नहीं लिखा जा सकता। यदि लिख भी लिया गया तो वह पठनीय एवं प्रकाशनीय नहीं बन सकता। For Private And Personal Use Only
SR No.020048
Book TitleAnusandhan Swarup evam Pravidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamgopal Sharma
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1994
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size6 MB
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