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पाण्डुलिपि-सम्पादन/71 है, जिनसे कार्य जल्दी पूर्ण हो जाए और तुरन्त सिद्धि की ओर बढ़ जाए। ऐसे लोग अपने सम्पादन-कार्य में जल्दबाजी के कारण अनेक त्रुटियाँ छोड़ देते हैं । कभी-कभी बहुत ही भ्रष्ट सम्पादन कर डालते हैं। अतः सम्पादक का यश-लालसा से बहुत दूर रहना अत्यन्त आवश्यक है।
____12. सम्पादन-विधि का ज्ञान- पूर्वोक्त योग्यताओं के होते हुए भी यदि कोई व्यक्ति सम्पादन की विधि से परिचित नहीं है, तो भी वह अच्छा सम्पादन-कार्य नहीं कर सकता। अतः पाण्डुलिपि-सम्पादन का कार्य करने के इच्छुक व्यक्ति को अनुभवी विद्वानों, प्रन्थों, सम्पादित पाठों तथा संगोष्ठियों और विचार-विमर्श के माध्यम से पाण्डुलिपि-सम्पादन की विधि का पूर्ण ज्ञान करके ही इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। सम्पादन-विधि के सोपान
किसी पाण्डुलिपि के पाठ-सम्पादन के लिए सम्पादक को विशेष विधि से कार्य करना होता है । इस विधि के निम्नांकित सोपान हैं :
1. प्रतिलिपियों का संग्रह- सम्पादक को जिस पाण्डुलिपि का सम्पादन करना हो, उसकी यत्र-तत्र सुरक्षित समस्त प्रतियों का पता लगाकर उनकी प्रतिलिपियाँ उपलब्ध कर लेनी चाहिए। ये सभी प्रतिलिपियाँ बहुत सावधानी से की जानी चाहिए। प्रतिलिपि करते समय “मक्षिका स्थाने मक्षिका” का नियम पालन किया जाना चाहिए। कुछ सम्पादक प्रतिलिपि करते समय ही अपने विवेक से वणों और शब्दों में परिवर्तन करते चले जाते हैं। परिणाम यह होता है कि एक ही ग्रन्थ की कई प्रतिलिपियों में वह पाठ भी सुरक्षित नहीं रह पाता, जो संग्रहालयों में सुरक्षित उन हस्तलिखित प्रतियों में है, जिनसे वे प्रतिलिपियाँ की गयी हैं। कई बार ऐसा होता है कि सम्पादक आलस्य के कारण बहुत कम शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों से पारिश्रमिक देकर प्रतिलिपि करवाते हैं। ऐसी प्रतिलिपियों में पाठ-भेद बढ़ता चला जाता है। इस प्रकार सम्पादन का कार्य आरंभ ही सदोष हो जाता है।
2. प्रतियों का वंशवृक्ष- प्रतिलिपियाँ प्राप्त हो जाने के पश्चात् सम्पादक को चाहिए कि वह उन्हें काल-क्रम से व्यवस्थित करे। प्रायः हस्तलिखित प्रतियों की पुष्पिकाओं में लिपिकाल दिया होता है। कागज,स्याही, आश्रयदाता, लिपिकर्ता आदि के आधार पर भी काल-निर्णय किया जा सकता है। जब सभी प्रतियों के लिपिकाल का पता चल जाए, तब सम्पादक को चाहिए कि वह उनका वंशवृक्ष तैयार करे। इस कार्य के लिए सम्पादक को यह तय करना चाहिए कि कौन-कौन-सी प्रतियाँ किस-किस प्रति की प्रतिलिपि है । प्रायः आरंभ में लिखी गयी किसी एक प्रति की अनेक बार प्रतिलिपि की जाती है और वे सभी प्रतिलिपियाँ कई स्थानों की यात्रा करती हैं। इन प्रतिलिपियों से भी नई प्रतिलिपियाँ तैयार की जाती हैं । इस प्रकार एक प्रति की कई प्रतिलिपियाँ और उन प्रतिलिपियों की भी कई प्रतिलिपियाँ एक ही समय में या भिन्न-भिन्न समय में तैयार होती रहती हैं । सम्पादक को इन प्रतिलिपियों का पुष्पिका, पाठ आदि के आधार पर वर्गीकरण करना चाहिए। उसे यह
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