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ललितकलाओं में अनुसंधान
विश्वविद्यालयों के मानविकी संकायों में मुख्यतः चित्रकला की शिक्षण व्यवस्था है । कुछ विश्वविद्यालयों में संगीत कला एवं नृत्य कला का शिक्षण भी दिया जाता है। इन कलाओं में शोध का क्षेत्र बहुत सीमित रहता है ।
चित्रकला
यह कला संगीत और नृत्य की अपेक्षा भौतिक आधार की अधिक अपेक्षा रखती है । आधार या फलक, रंग, तूलिका, दृश्य आदि की सहायता से चित्र का निर्माण संभव होता है । कलाकार अपने विषय में जितना निष्णात होता है, उतना ही कुशल शिक्षण-प्रशिक्षण वह अपने छात्रों को दे सकता है। यह कुशलता, अभ्यास और ज्ञान दोनों पर तो निर्भर होता ही है, साथ ही कलाकार में एक विशेष प्रज्ञा की भी आवश्यकता होती है। वह कल्पनाशील भी होना चाहिए। उसमें समाज तथा प्रकृति को गंभीरता से देखने-परखने और समझने की रुचि तथा क्षमता भी होनी चाहिए। प्रत्येक कला कलाकार से निर्लोभ, निर्लज्ज तथा तल्लीनतावृत्ति की भी अपेक्षा रखती है। कला के प्रति सच्चा प्रेम होने पर ही कलाध्यापक अन्य कलाकारों की कृतियों की सराहना कर सकता है। अतः हर कलाध्यापक से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह अन्य कलाकारों की कृतियों की सराहना करने का अभ्यास करे । चित्रकला के अनेक नये आयाम खुलते जा रहे हैं। फलक, रंग, तूलिका तथा अन्य उपकरणों के क्षेत्रों में भी पर्याप्त परिवर्तन व विकास हुआ है। उनके प्रयोग की पद्धतियों में भी नये-नये दृष्टिकोणों का विकास हुआ है। प्राचीन काल में चित्रकला के जो साधन थे, वे बहुत कुछ बदलते जा रहे हैं। चित्रों की अनेक शैलियाँ विकसित हुयीं और अनेक समाप्त भी हो गयीं तथा जो बर्ची, उनमें भी परस्पर संक्रमण हुआ । फलतः प्राचीन कला- शैलियों में भी अनेक नये रूप उभरे और उन्होंने परम्परागत कला- शैलियों को आकर्षक आयाम दिये । कल्पनाशील कलाकारों ने अनेक नवीन कलाशैलियों को भी जन्म दिया। पाश्चात्य
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